Srimad Bhagavad Gita: ‘श्रीमद्भगवद् गीता के अध्यायों का नामकरण रहस्य तथा सार’ - 4

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 03 Sep, 2021 08:56 AM

srimad bhagavad gita

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से बोले, ‘‘यह श्रीमद्भागवत गीता रूपी अविनाशी योग मैंने सृष्टि के आदिकाल में सर्वप्रथम सूर्य को दिया था। उसके बाद सूर्य के पुत्र मनु, फिर इक्ष्वाकु तथा अन्य राजर्षियों

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चतुर्थ अध्याय - ‘ज्ञान कर्म संन्यास’

Srimad Bhagavad Gita: भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से बोले, ‘‘यह श्रीमद्भागवत गीता रूपी अविनाशी योग मैंने सृष्टि के आदिकाल में सर्वप्रथम सूर्य को दिया था। उसके बाद सूर्य के पुत्र मनु, फिर इक्ष्वाकु तथा अन्य राजर्षियों ने जाना। तब यह योग लोप हो गया। तू मेरा प्रिय सखा है इसलिए इस उत्तम मर्म के विषय को मैंने तेरे समक्ष कहा है।’’

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तब अर्जुन बोले, ‘‘प्रभु आपका जन्म तो अब का है। तब मैं यह कैसे जानूं कि सर्वप्रथम आपने यह दिव्य श्री गीता उपदेश सूर्य को दिया था?’’

भगवान बोले, ‘‘तुम्हारे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। तुम उनको नहीं जानते परंतु मैं जानता हूं। धर्म की रक्षा के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूं। मैं अविनाशी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति अर्थात माया को अपने अधीन करके प्रकट होता हूं। यद्यपि सभी प्राणी माया के अधीन होकर जन्म लेते हैं।’’

भगवान कहते हैं, ‘‘कर्मों और कर्मफल में मेरी कोई स्पृहा नहीं है इसलिए मैं कर्मों से लिप्त नहीं होता। जिस मनुष्य के सम्पूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं वह कर्मों के फल और कर्तापन के अभिमान को त्याग कर, कर्म में अच्छी प्रकार व्यवहार करते हुए भी कुछ नहीं करता। ईर्ष्या से रहित हुआ सिद्धि और असिद्धि में सम भाव वाला पुरुष कर्मों से नहीं बंधता और संसार बंधन से छूट जाता है क्योंकि उपरोक्त साधन करने से उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं।’’

‘‘देव यज्ञ, दान यज्ञ, आत्मसंयम यज्ञ, स्वाध्याय रूपी ज्ञान यज्ञ आदि यज्ञों के मुख्य रूप कहे गए हैं। इनमें ज्ञान यज्ञ सब प्रकार से श्रेष्ठ है। ज्ञान के समान पवित्र करने वाला संसार में अन्य कुछ भी नहीं है।’’

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‘‘ज्ञान रूपी नौका पापी से पापी मनुष्य को भी पाप समुद्र से तार देती है। जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। भगवद् गीता को न जानने वाला श्रद्धा रहित और संशय युक्त मनुष्य इस दिव्य परम कल्याणकारी श्री गीता ज्ञान से वंचित होकर परमार्थ से तथा लोक-परलोक दोनों से भ्रष्ट हो जाता है।’’

‘‘इसलिए हे अर्जुन! तुम्हें ज्ञान रूपी तलवार द्वारा अपने समस्त संशयों का छेदन करके अपने समस्त कर्मों को भगवद् अर्पण बुद्धि करते हुए युद्ध के लिए उद्यत होना चाहिए। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को ज्ञानी पुरुषों की शरण में जाना चाहिए।’’

इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी ने कर्मयोग के साधन में ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट बतलाया है कि निष्काम कर्मयोग में ज्ञान का समावेश आवश्यक है, इसलिए इस अध्याय का नाम ज्ञान कर्म सन्यास योग है। ज्ञान का आश्रय लेकर निष्काम कर्मयोग अर्थात भगवद् अर्पण बुद्धि से किया जाने वाला कर्म ही संन्यास है। 

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