Edited By Lata,Updated: 25 Sep, 2019 09:35 AM
स्वामी विवेकानन्द एक बार घने जंगल से गुजर रहे थे। ग्रीष्म ऋतु थी। चलते-चलते उन्हें प्यास लगी तो वह एक वृक्ष के समीप पहुचे।
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स्वामी विवेकानंद एक बार घने जंगल से गुजर रहे थे। ग्रीष्म ऋतु थी। चलते-चलते उन्हें प्यास लगी तो वह एक वृक्ष के समीप पहुचे। वृक्ष घना था। उसकी शीतल छाया में एक ग्रामीण बैठा हुआ था। उसने अपने पास पानी की एक छोटी-सी मटकी रखी थी और वह वहां से गुजरने वालों को पानी पिलाकर संतोष का अनुभव करता था।
विवेकानन्द उस व्यक्ति के समीप जाकर बैठ गए। उस व्यक्ति ने आदरपूर्वक झुककर उन्हें प्रणाम किया और कुछ दूर हटकर बैठ गया। उसने अपनी मटकी भी स्वामी जी से कुछ दूर खिसका ली। स्वामी जी मुस्कराए और बोले, ‘‘क्यों भाई! आदर-सत्कार तो खूब किया लेकिन अपनी मटकी दूर क्यों सरका ली? क्या प्यासे को थोड़ा जल भी नहीं पिलाओगे?’’
वह व्यक्ति सकपका गया, ऐसा लगा जैसे वह किसी दुविधा में पड़ गया हो। फिर हाथ जोड़कर कहने लगा, ‘‘स्वामी जी! मैं आपको यह पानी कैसे पिला सकता हूं? आप संन्यासी हैं, पूज्य हैं और मैं अछूत हूं।’’
स्वामी विवेकानन्द उस ग्रामीण की बात सुनकर तुरंत उठ खड़े हुए। उन्होंने उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। वह सीधे उस व्यक्ति के पास गए और उसे गले से लगा लिया। कहां तो वह खुद को अछूत बता रहा था और कहां यह संन्यासी महाराज उसे गले लगा बैठे। हैरत में पड़ा वह ग्रामीण कुछ बोलता उससे पहले ही स्वामी जी ने मटकी उठाई और स्वयं ही गटागट पानी पीने लगे।
पानी पीने के बाद स्वामी जी ने उस व्यक्ति से कहा, ‘‘पानी के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। इतना गुणकारी होने के बाद भी पानी भेदभाव नहीं रखता, वह सबकी प्यास बुझाता है। जिस प्रकार पानी यह नहीं जानता कि उससे ब्राह्मण की प्यास बुझ रही है या अछूत की, उसी प्रकार मनुष्य को भी ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं रखना चाहिए।’’ ग्रामीण को धर्म का मर्म मिल गया था।