Edited By Jyoti,Updated: 02 Dec, 2018 04:45 PM
अनुवाद और तात्पर्य: जो वेदों का अध्ययन करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर पवित्र, इंद्र के स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहां वे देवताओं का-सा आनंद भोगते हैं।
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श्लोक-
भक्ति का सूत्रपात ‘हरे कृष्ण’ से
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा
यज्ञैरिष्टवा स्वर्गङ्क्षत प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥
अनुवाद और तात्पर्य: जो वेदों का अध्ययन करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषणा करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर पवित्र, इंद्र के स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहां वे देवताओं का-सा आनंद भोगते हैं।
त्रैविद्या- शब्द तीन वेदों-साम, यजु: और ऋग्वेद- को बताने वाला है। कहा जाता है कि जिस ब्राह्मण ने इन तीनों वेदों का अध्ययन किया हो वे त्रिवेदी कहलाता है। इसके साथ ही जो इन तीनों वेदों से प्राप्त ज्ञान के प्रति आसक्त रहता है, उसका समाज में आदर सम्मान होता है। लेतिन दुर्भाग्यवश आज भी इस धरती पर वेदों के ऐसे कईं पंडित हैं जो उनके अध्ययन के चरम लक्ष्य को नहीं समझते। इसीलिए कृष्ण स्वयं अपने को त्रिवेदियों के लिए परम लक्ष्य घोषित करते हैं।
वास्तविक त्रिवेदी भगवान के चरण कमलों की शरण ग्रहण करते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिए उनकी शुद्ध भक्ति करते हैं। भक्ति का सूत्रपात हरे कृष्ण मंत्र के कीर्तन और साथ-साथ कृष्ण को वास्तव में समझने के प्रयास से होता है।
दुर्भाग्यवश जो लोग वेदों के नाममात्र के छात्र हैं वे इंद्र और चंद्र जैसे विभिन्न देवों को आहुति प्रदान करने में रुचि लेते हैं। ऐसे प्रयत्न से विभिन्न देवों के उपासक निश्चित रूप से प्रकृति के निम्न गुणों के कल्पष से शुद्ध हो जाते हैं। फलस्वरूप वे उच्चतर लोकों, और महर्लोक, जनोलोक, तपोलोक आदि को प्राप्त होते हैं। एक बार इन उच्च लोकों में पहुंच कर वहां इस लोक की तुलना में लाखों गुना अच्छी तरह इन्द्रियों की तुष्टि की जा सकती है।
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