निर्वाण दिवस: सनक ऋषि के अवतार ‘संत दादू’ के बारे में जानिए कुछ खास

Edited By Updated: 16 Mar, 2016 01:19 PM

saint dadu

कलयुग में जब निर्गुण, निराकार, परमब्रह्म की उपासना में शिथिलता आई तब कुछ संतों ने सगुण साकार परमात्मा की उपासना का प्रचार किया। 16वीं सदी में जब असुरों का प्रताप बढऩे लगा, हिंदू-मुसलमान के पारस्परिक मतभेदों के कारण उपद्रव बढ़ गए उस समय जब भेद,...

कलयुग में जब निर्गुण, निराकार, परमब्रह्म की उपासना में शिथिलता आई तब कुछ संतों ने सगुण साकार परमात्मा की उपासना का प्रचार किया। 16वीं सदी में जब असुरों का प्रताप बढऩे लगा, हिंदू-मुसलमान के पारस्परिक मतभेदों के कारण उपद्रव बढ़ गए उस समय जब भेद, भ्रांति, घृणा जैसे असुर गुणों की अत्यधिक वृद्धि हो गई और राजा व प्रजा के बीच असंतोष बढ़ गया, तब देश में भाईचारा कायम करने के लिए निर्गुण ब्रह्म की भक्ति द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कराने की आवश्यकता पड़ी।

 
उस समय संत-मुनियों को समर्थ जानकर परमात्मा ने सनक जी को धरती पर भेजने का निश्चय किया। परमात्मा ने सनक जी को अपनी योग-शक्ति से बालक रूप बनाकर लोक कल्याणार्थ मृत्यु लोक के मध्य भारत के अहमदाबाद निवासी लोधी राम नागर ब्राह्मण के पोष्य पुत्र के रूप में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी विक्रमी सम्वत् 1601 को भेजा। 
 
 
लोधी राम ने पुत्र का नाम दादू रखा। बाल लीला के तीन वर्ष व्यतीत होने के बाद दादू को शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय भेजा गया। 11 वर्ष की आयु में बालक दादू ने वृद्ध मुनि के रूप में भगवान के दर्शन किए। दादू ने वृद्ध रूप धारी भगवान को श्रद्धाभक्ति से प्रणाम करके एक मुद्रा भेंट रूप में दी। वृद्ध मुनि ने प्रसन्नता से मुद्रा लौटाते हुए कहा कि जो वस्तु तुम्हें सर्वप्रथम मिले इस मुद्रा से लेकर आ जाओ। बालक दादू शीघ्र गए और पान की दुकान से पान लेकर वृद्ध मुनि को भेंट किया। मुनि ने बालक दादू के मस्तक पर हाथ रख आशीर्वाद दिया। वृद्ध मुनि ने कहा कि तुमने जो अभी मेरा ज्ञान रूपी स्वरूप देखा है। उसी निर्गुणस्वरूप की भक्ति का विस्तार करने के लिए संसार में तुम्हारा आगमन हुआ है। सांसारिक भोगों में लग कर इस निर्गुण स्वरूप को भूल मत जाना।
 
‘‘दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम सु प्रसाद।
मस्तक मेरे कर धरया, दीक्षा अगम अगाध।।’’
 
दादू ने कहा नहीं भूलूंगा प्रभु और तब वृद्ध मुनि ने बालक दादू को इच्छानुसार वर मांगने के लिए कहा। बालक दादू ने कहा-
‘‘भक्ति मांगू बाप भक्ति मांगू, मूनैं ताहारा नाम नूं प्रेम लागू।
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व स्यू कीजिए, अमर थावा नहिं लोक मांगू।।’’
 
 
बालक दादू की निष्कामता से वृद्ध मुनि प्रसन्न होकर बोले पुन: तुम्हें दर्शन देकर आगे का कर्तव्य बताऊंगा। तुम मेरी बताई हुई पद्धति से निर्गुण भक्ति करना। इतना कह कर वह अदृश्य हो गए। 
 
संत दादू ने 16 वर्ष कठोर तपस्या की और इस संसार को प्रेम एवं भाईचारा कायम करने का संदेश दिया। 
 
उन्होंने निर्गुण भगवान की उपासना पर बल दिया और नरेना में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी विक्रमी सम्वत् 1660 में अपने ऐहिक शरीर द्वारा साधना एवं उपदेश व सत्संग के अंतिम क्षण बिताते हुए अपने अनेकानेक शिष्य तथा श्रद्धालु भक्तजनों को वाणी के माध्यम से निरंजन राम की भक्ति का मार्ग दिखाया। 
 
भगवत आज्ञा से अपने ब्रह्मलीन होने की इच्छा व्यक्त कर सत्यराम का उच्चारण कर अंतर्ध्यान हो गए। संत दादू की अनुभव वाणी आज के समय में भी सार्थक है।
 
—अशोक बुवानीवाला

 

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