BJP को कड़वे सबक दे गई 3 बड़े राज्यों में मिली हार

Edited By Anil dev,Updated: 15 Dec, 2018 10:18 AM

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5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं। भाजपा 3 अहम राज्यों में सत्ता से बाहर हो गई। वे 3 राज्य जो न सिर्फ हिंदी बैल्ट में भाजपा के मजबूत गढ़ थे, बल्कि 2014 की जीत के बड़े आधार भी थे। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का नारा खारिज हो गया है।

नई दिल्ली(विशेष): 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं। भाजपा 3 अहम राज्यों में सत्ता से बाहर हो गई। वे 3 राज्य जो न सिर्फ हिंदी बैल्ट में भाजपा के मजबूत गढ़ थे, बल्कि 2014 की जीत के बड़े आधार भी थे। भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का नारा खारिज हो गया है। सीधी लड़ाई में कांग्रेस ने बाजी मार ली। इसी के साथ भाजपा के आला पदाधिकारियों की वीरवार को अहम बैठक हुई। यह अलग बात है कि इस बैठक में हाल ही में विधानसभा चुनावों में हार के पहलुओं पर चर्चा नहीं किए जाने की बात कही जा रही हैलेकिन कुछ भी हो पार्टी में अंदर ही अंदर मंथन शुरू हो चुका है। दूसरी तरफ राजनीति के विशेषज्ञों द्वारा भी अपनी राय व्यक्त की जाने लगी है कि मौजूदा हालात में भाजपा किन कदम को उठाए और कौन-सा फार्मूला अपनाए कि 2019 के चुनाव जीतना उसके लिए आसान हो सके। 3 राज्यों में मिली बड़ी हार के बाद भाजपा को कड़वे सबक लेते हुए कई बातों को त्यागना होगा और कई बातों को अपनाना होगा। 

अब शक्ति हस्तांतरण की जरूरत
भाजपा का आलाकमान अंदाज वाला प्रबंधन अब टूट चुका है। इसके कारगर होने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने दम पर राज्य चुनावों का नतीजा भी पार्टी के पक्ष में लाने की काबिलियत दिखानी होती है। वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों तक ऐसा करने में सफल भी रहे हैं लेकिन कर्नाटक के चुनाव में उनकी सीमाएं पहली बार नजर आईं और भाजपा सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ  मुकाबले में पिछड़ गई। 3 राज्यों में हुए इन चुनावों ने उनकी इस सीमा को और भी जाहिर कर दिया है। अगर आपके पास एक ऐसा सर्वोच्च नेता नहीं है जो आपको अपने दम पर चुनाव में जीत दिला सकता है तो आप सर्वशक्तिमान आलाकमान की व्यवस्था कायम नहीं रख सकते हैं। आपको शक्ति का हस्तांतरण करना ही होगा।

भाजपा को कांग्रेस को दूर रखने की चाह छोडऩी होगी 
कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का सपना इतनी खराब कल्पना है कि खुद आर.एस.एस. ने भी उससे अपने को अलग कर लिया था। अब यह सपना टूट चुका है। कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनावों में 44 सीटों तक सिमट गई थी लेकिन उस बदहाली में भी उसे 10.7 करोड़ मतदाताओं का साथ मिला था, जबकि भाजपा को 17 करोड़ मत मिले थे। इतिहास का अपना सबसे बदतर प्रदर्शन करने की हालत में भी 10.7 करोड़ लोगों का समर्थन रखने वाली पार्टी को आप खत्म नहीं कर सकते हैं। हालत यह है कि पिछले 1 साल में भाजपा के सामने कांग्रेस युक्त गुजरात की स्थिति बनी और अब तो समूची हिंदी बैल्ट ही कांग्रेस के नेतृत्व में आ चुकी है। भाजपा अब कांग्रेस को दूर रखने की चाह नहीं रख सकती है। 

खराब प्रचार से कोई नहीं डरता
भाजपा के विरोधी और उससे भी अहम बात यह है कि उसके सहयोगियों को भी एजैंसियों का डर सता रहा है। भाजपा ने इन एजैंसियों का काफी इस्तेमाल किया है। हालांकि अतीत में कांग्रेस ने भी इन एजैंसियोंं का बड़े स्तर पर इस्तेमाल किया है लेकिन वह इस काम को थोड़ा इस ढंग से अंजाम देती थी ताकि लोगों की आंखों में न चुभे। भाजपा के कार्यकाल के अधिकांश मामले इतने बिगड़ गए कि वे एक सिरे पर ही जा गिरे। एजैंसियां सूचनाओं को लीक कर और प्रायोजित कर अपने शिकारों को दंडित करती हैं। आज कोई भी खराब प्रचार से डरता नहीं है क्योंकि लोग आम तौर पर इन पर यकीन नहीं करते हैं। अगस्ता वेस्टलैंड हैलीकॉप्टर सौदे में एक बिचौलिए क्रिश्चियन मिशेल को भारत लाने से भी अब आपको कोई चुनावी लाभ नहीं मिलेगा। 

संस्थाओं के दमन का दौर खत्म
संस्थाओं के दमन का दौर खत्म हो चुका है। इन राज्यों के नतीजे उच्चतम न्यायालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो और आर.बी.आई. में उठे बगावती तेवरों के बाद आए हैं। इन घटनाओं ने मोदी सरकार और भाजपा की उस सख्त छवि को गहरी चोट पहुंचाई है जिससे भिडऩे का साहस कोई नहीं करता था लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। संस्थान अब इनके डर से मुक्त हो रहे हैं। ये चुनाव उस डर के बचे-खुचे अवशेष को भी खत्म कर देंगे। 

बदलाव का सपना ध्वस्त
संसद के दोनों सदनों पर वर्ष 2022 तक दबदबा बना लेने और संविधान एवं शासन प्रणाली में महत्वपूर्ण बदलाव कर पाने की क्षमता हासिल करने का सपना अब ध्वस्त हो चुका है। असल में संविधान निर्माताओं ने ऐसी द्विसदनीय व्यवस्था बनाई है कि अब यह कहा जा सकता है कि सिद्धांत रूप में किसी भी दल को दोनों सदनों में एक साथ बहुमत नहीं मिल सकता है, चाहे 2019 के चुनाव का नतीजा हो। लिहाजा, मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली सशक्त भाजपा समेत हरेक दल को मोल-भाव सीखना होगा।

मतदाता आपके लिए या आपके खिलाफ वोट देता है
भारतीय मतदाता 2019 में मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा और राजीव गांधी के खिलाफ  मत नहीं डालने वाले। मतदाता या तो आपके लिए या आपके खिलाफ वोट कर रहे हैं, किसी के दादा-परदादा के लिए नहीं। लिहाजा इस टाइम मशीन के जाल से बाहर निकलिए। 2019 की जंग इस समय में लड़ी जाएगी, उस समय में नहीं। 

पहुंच से दूर रहने वाले नेताओं को पसंद नहीं करता मतदाता 
च्मेरा देश बदल रहा हैज् भाजपा का नारा है। संभवत:यह सच्चाई है लेकिन एक बात नहीं बदल रही है कि मतदाता अहंकारी और पहुंच से दूर रहने वाले नेताओं को अब भी उसी तरह नापसंद करते हैं। मतदाता गाली-गलौच से भरी भाषा वाले चुनाव अभियान को भी पसंद नहीं करते हैं। हालिया चुनावों में भाजपा की तरफ  से विधवा, अली, बजरंग बली जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल करना एक भयंकर भूल थी। आखिर 2014 के चुनाव में विकास और अच्छे दिन के सकारात्मक वादों ने ही आपको जबरदस्त जीत दिलाई थी।

मतदाताओं का ध्रुवीकरण
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भारत के उन ङ्क्षहदू राज्यों में शामिल हैं जहां भाजपा की कांग्रेस से सीधी टक्कर रहती रही है। इसका यह मतलब है कि इन राज्यों में मुस्लिम मत राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम होता है। लिहाजा, आप बड़ी मुस्लिम आबादी वाले उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भले ही मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में सफल हो सकते हैं लेकिन ङ्क्षहदू बहुल राज्यों के लोग उत्तर प्रदेश, केरल, कश्मीर, असम के मुस्लिमों के खिलाफ मतदान नहीं करने वाले हैं। उनकी ङ्क्षचता केवल अपने भविष्य को लेकर होती है।

जाति आधारित दलों से ढूंढने होंगे सहयोगी 
वर्ष 2014 में आप जातियों के आधार पर बंटे हिंदू मतदाताओं को राष्ट्रवाद और आॢथक आशावाद के इस्तेमाल से एकजुट करने में सफल रहे थे लेकिन उस फार्मूले की आधी अवधि कुछ समय पहले ही खत्म हो चुकी है। अब आपको जाति आधारित दलों में से अपने लिए सहयोगी ढूंढने होंगे, उनके लिए जगह बनानी होगी या अपने प्रमुख मतदाताओं तक पहुंचने के लिए आपको कदम बढ़ाने होंगे।

भूमिकाओं की अदला-बदली हो गई 
राहुल गांधी को किसी उपहास की तरह न लें। इस चुनाव ने राहुल को एक राजनीतिक नेता के तौर पर मान्यता दे दी है। उन्होंने इसके लिए मेहनत और प्रतिबद्धता दिखाई है। राहुल और उनके परिवार की आलोचना राजवंशीय मद और विदेशी होने की धारणा पर की जाती रही है। राहुल जब तक उदासीन नजर आते रहे और अचानक गुम होते रहे, तब तक यह आरोप कारगर रहा। उस समय आपको सच्चे और देसी सपूत की तरह देखा जाता था। युवा भारतीय मतदाता हकदारी के अहसास से नफरत करता है लेकिन इस चुनाव में भूमिकाओं की अदला-बदली हो गई है। राहुल अधिक विनम्र, पहुंच के भीतर वाले शख्स, कम हकदार और अधिक सकारात्मक नजर आए हैं।
 

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