लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने से हुई थी भगत सिंह को फांसी!

Edited By Anil dev,Updated: 28 Sep, 2019 10:54 AM

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आज आजादी के उस नायक का जन्मदिन है जो देश के लिए महज 23 साल की उम्र मे फांसी के फंदे पर झूल गया।  इनका जन्म 28 सितम्बर 1907 ई0 को पंजाब के कल्याणपुर नामक गांव में हुआ।

नई दिल्ली: आज आजादी के उस नायक का जन्मदिन है जो देश के लिए महज 23 साल की उम्र मे फांसी के फंदे पर झूल गया।  इनका जन्म 28 सितम्बर 1907 ई0 को पंजाब के कल्याणपुर नामक गांव में हुआ।  खटकड़कलां इनका पैतृक गांव है। 23 मार्च, 1931 को जब उनकी उम्र मात्र 23 साल, 5 मास व 25 दिन थी उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में राजगुरु व सुखदेव के साथ शाम 7.33 बजे फांसी पर लटका दिया गया था। मगर क्या आप जानते है असेंबली में अपने साथियों के साथ बम फेकने वाले भगत सिंह को लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने की वजह से फांसी की सजा सुनाई गई थी। क्या था पूरा घटनाक्रम आइए जानते हैं-

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जब लाजपत राय की मौत का बदला लेने की खाई कसम
भगत सिंह अपनी शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े, उन्होंने बचपन में ही जलियांवाला बाग का नरसंहार अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेकने की कसम खा रखी थी। भगत सिंह जब लाहौर के डीएवी कालेज में पढ़ाई कर रहे थे तभी महात्मा गांधी ने पूरे देश में असहयोग आंदोलन का बिगुल फूंक दिया था। ऐसे में भगत सिंह इस आंदोलन में कूद पड़े। परंतु जब चौरी- चौरा कांड के कारण गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो देश के कई युवा सिपाही शस्त्र पकडऩे पर मजबूर हो गए। आगे भगत सिंह ने अपने साथियों जैसे सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर, यतीन्द्रनाथ व बटुकेश्वर आदि के साथ मिलकर हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ की स्थापना की। जो बाद में हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना के नाम से जानी गई। जिसका मकसद राष्ट्रीय नेताओं व जनता को अपमानित करने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को सबक सिखाना था।

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इसके साथ ही देश की आज़ादी में अंग्रेजों से लोहा लेने का कार्य इस दल के नेताओं ने अपने कन्धों पर लिया। यह वह दौर था जब ब्रिटिशों ने साइमन कमीशन का एक दल भारत भेजा। जिसमें किसी भारतीय को सम्मिलित नहीं किया गया था। इस वजह से पूरे भारत में इसका विरोध होने लगा। इस संबंध में 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी जुलूस का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। इस दौरान अंग्रेजों ने जुलूस पर लाठियां बरसानी शुरू कर दी। जिसमें लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए। उसके 18 दिन बाद इलाज के दौरान 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। पंजाब पुलिस के उपअधीक्षक साण्डर्स को क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत का जिम्मेदार ठहराया। जबकि इतिहासकारों की माने तो क्रांतिकारियों के नेताओं व लाजपत राय के बीच किन्हीं कारणों पर आपसी मतभेद भी थे। परन्तु, उनकी मौत का बदला लेने के लिए भगतसिंह के साथ चंद्रशेखर, सुखदेव एवं राजगुरु ने साण्डर्स की हत्या करने की कसम खाई और उसको मारने की योजना बनाई।

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फिर मारा गया साण्डर्स 
17 दिसंबर 1928 को उसकी मौत का दिन तय किया गया। उस दिन 4 बजकर 3 मिनट का समय हुआ था कि साण्डर्स अपनी मोटर साईकिल पर बैठकर बाहर निकला। वो कुछ ही दूर गया होगा कि भगतसिंह व राजगुरु ने साण्डर्स को अपनी गोलियों का शिकार बना लिया। इस योजना का संचालन व उनको पीछे से बैकअप देने का काम चंद्रशेखर के कन्धों पर था। उन्होंने भगत सिंह व राजगुरु की तरफ बढऩे वाले सिपाही चानन सिंह को अपनी गोली का निशाना बनाकर उनके लिए रास्ता साफ कर दिया था। वहीं कहा जाता है सुखदेव भी इनके साथ थे। साण्डर्स की हत्या से ब्रिटिश अधिकारी डर गए। अंग्रेजी सरकार बौखला गई थी। पुलिस इन क्रांतिकारियों को चप्पे चप्पे खोज रही थी।

परन्तु, साण्डर्स की हत्या करने के बाद भगत सिंह, राजगुरु व अन्य साथी पुलिस की नजऱों में धूल झोंक कर लाहौर से निकलने में कामयाब हो गए। भगत सिंह एक सरकारी अधिकारी के रूप में ट्रेन के प्रथम श्रेणी डिब्बे में श्रीमती दुर्गा देवी बोहरा (भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी शहीद भगवतीचरण बोहरा की पत्नी थीं) व उनके तीन वर्षीय पुत्र के साथ बैठ गए। वहीं गज़ब के निशानेबाज़ राजगुरु उनके अर्दली बन गए। इस तरह भगत सिंह लाहौर से कलकत्ता पहुँचने में सफल हो गए। इसके अलावा चंद्रशेखर आज़ाद साधू के भेष में एक यात्री दल के साथ मथुरा की और निकल गए थे।ब्रिटिश अधिकारी इस तरह हाथ मलते रह गए।   


साण्डर्स हत्या कांड को लेकर भगत सिंह के दल की तरफ से चिट्टी के कुछ अंश

  • साण्डर्स की हत्या के बाद हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से दो नोटिस जारी किया गया था। जिसका पहले नोटिस का उन्वान नौकरशाही सावधान था। उसके कुछ अंश
     
  • यह सोचकर कितना दु:ख होता है कि जे0 पी0साण्डर्स जैसे एक मामूली पुलिस अफसर के कमीने हाथों ने देश की तीस करोड़ जनता द्वारा सम्मानित एक नेता पर हमला करके उनके प्राण ले लिये। राष्ट्र का यह अपमान हिन्दुस्तानी नवयुवकों और मर्दों को चुनौती थी।
     
  • आज संसार ने देख लिया कि हिंदुस्तान की जनता निष्प्राण नहीं हो गयी है, उनका खून जम नहीं गया, वे अपने राष्ट्र के सम्मान के लिए प्राणों की बाजी लगा सकते हैं। 
     
  • इसके बाद दूसरे नोटिस जारी की गई, जिसमें हेडलाइन लिखी थी। जे.पी. साण्डर्स मारा गया! लाला लाजपत राय का बदला ले लिया गया!!
     
  • इसके नीचे जनता से अपील की गई थी कि इस बात की सूचना दी जाती है कि यह सीधी राजनीतिक प्रकृति की बदले की करवाई थी। भारत के महान बुजुर्ग लाला लाजपत राय पर किए गए अत्यंत घणित हमले से उनकी मृत्यु हुई। यह देश की राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा अपमान था और अब इसका बदला ले लिया गया है। इसके बाद सभी से यह अनुरोध है कि हमारे शत्रु पुलिस को हमारा पता-ठिकाना बताने में किसी किस्म की सहायता न दें।

     

इंकलाब जिंदाबाद नारे के साथ फांसीं के फंदे पर झूल गए
ब्रिटिश सरकार निर्दोष लोगों को साण्डर्स हत्याकांड में पूछताछ के लिए पकडऩे लगी। क्रांतिकारियों ने अपनी वजह से निर्दोष लोगों को कष्ट होने को ठीक नहीं समझा। इसके लिए वे कुछ करने की योजना बनाई। उस वक्त सारे देश में पब्लिक सेफ्टी बिल की बड़ी चर्चा थी। इसका विरोध हो रहा था। फिर भी सरकार इसे पारित करने पर तुली थी। भगत सिंह अपने साथियों के साथ इस बिल का असेम्बली में जाकर विरोध करने का निश्चय किया। उससे पहले ही आखिरकार यह बिल पास हो गया। ऐसे में भगत सिंह अपने साथियों के साथ असेम्बली में बम फोड़ा, जिसका मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं बल्कि बहरी सरकार को सुनाने के लिए किया गया था। भगत सिंह अपने साथी बटुकेश्वर के साथ भाग सकते थे, मगर अपनी गिरफ्तारी कराना बेहतर समझा। उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया।गिरफ्तार करके दोनों को दिल्ली जेल की अलग-अलग सेल में डाल दिया गया। दिल्ली न्यायालय में 4 जून को मुकदमा पेश हुआ।


8 दिनों के भीतर ही फैसला घोषित कर दिया गया। इन दोनों को बम कांड में आजीवन कारावास की सजा मिली। अभी भगत सिंह व उनके साथियों पर साण्डर्स की हत्या का मुकदमा चलाए जाना बाकी था। इसके लिए इनको दिल्ली से लाहौर की जेल में ले जाया गया। इस हत्या कांड को लाहौर षड्यंत्र अभियोग के नाम से जाना जाता है। जिसमें 7 अक्टूबर 1930 को फैसला सुना दिया गया था। इसके तहत भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी की सजा मुकर्रर की गई। मगर, अंग्रेजों ने एक दिन पहले ही 23 मार्च को शाम 7 बजकर 35 मिनट पर लाहौर की जेल में इन तीनों को फांसी पर चढ़ा दिया था। जिसको लेकर पूरा देश गमगीन होने के साथ इन क्रांतिकारी युवकों पर गर्व महसूस कर रहा था। सम्पूर्ण भारत में ब्रिटिश सरकार का विरोध होने लगा। जिसके बाद ब्रिटिश साम्राज्य पूरी तरह हिल गया था।

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