'विपक्षी दलों का मौन नेतृत्व की दृष्टि से अस्तित्वहीन का संकेत तो नहीं'

Edited By vasudha,Updated: 13 Jan, 2021 12:44 PM

farmers protest opposition

देश में बिना किसी राजनीतिक दलों के सहयोग के किसान आंदोलन को लगभग 50 के निकट हो चुका। 50 से अधिक किसान इस दौरान दम तोड़ चुके हैं। सरकार और किसानों के बीच आठवें दौर की वार्ता असफल हो चुकी है। कोर्ट ने कल तीन कानूनों के संदर्भ में चल रहे आंदोलन को लेकर...

नई दिल्ली (सुधीर शर्मा): देश में बिना किसी राजनीतिक दलों के सहयोग के किसान आंदोलन को लगभग 50 के निकट हो चुका। 50 से अधिक किसान इस दौरान दम तोड़ चुके हैं। सरकार और किसानों के बीच आठवें दौर की वार्ता असफल हो चुकी है। कोर्ट ने कल तीन कानूनों के संदर्भ में चल रहे आंदोलन को लेकर केन्द्र सरकार को कड़ा संदेश भी दिया है। अर्थात किसान और सरकार के बीच अब कोर्ट ने भी अपने को प्रवेश कर लिया है। पर दुखद पहलू यह कि राजनीतिक विपक्षी दलों में न तो किसानों के साथ खुलकर आने का जज्बा दिख रहा है, न ही कृषक आंदोलन को समाप्त करने की दलों द्वारा कोई आवाज ही उठती दिख रही है। हां इस आंदोलन को इतना लम्बा खिंचता देख सरकार जरूर मन ही मन अपनी कुटिलता व छद्मता भरी कामयाबी को लेकर गदगद है। आठवें दौर की वार्ता के बात कृषि मंत्री का प्रेसकांफ्रेन्स में गैरजिम्मेदारायना वाली हंसी तो यही संकेत कर रहे थे। पर इसे सरकार की सफलता नहीं, अपितु उसकी वैचारिक, नीतिगत व नेतृत्वगत विफलता ही कहेंगे। इसी के साथ यह आंदोलन विपक्षी राजनीतिक दलों एवं उनके नेतृत्वकर्ताओं की कमजोरी को भी दर्शाता है।

 

विपक्षी दलों का मौन साबित करता है कि अब वे नेतृत्व की दृष्टि से अस्तित्वहीन हो चुके हैं। क्योंकि जिस बिल को लेकर जनता को चेताना और सरकार के विरोध में आंदोलन खड़ा करना विपक्ष का काम था, उसे आज मजबूर विपक्ष के चलते देश के आम किसानों व देश की जनता को मौसम एवं सरकार की ओर से हो रही बदनामी के दोहरे मार के बीच खुद करना पड़ रहा है। जो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए दुखद पहलू है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी कि हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ सरकार की अपेक्षा किसानों को ही दोष देकर कोढ़ में खाज पैदा करने में लगा है।


यह आंदोलनरत किसान की मजबूरी ही कही जायेगी कि उसे कभी 26 जनवरी के दिन दिल्ली की सड़कों पर परेड निकालने, तो कभी किसानोें द्वारा 2024 तक ऐसे ही आंदोलन के साथ बैठे रहने बात कहना पड़ रहा है। चिंता वाली बात यह कि किसान की इस आवाज पर कोर्ट भले कुछ हिलता डुलता नजर आता दिख रहा है, परन्तु सरकार का विल्कुल चिंतित न होना साबित करता है कि कहीं देश की आम जनता बधुआई की दिशा में तो नहीं बढ़ रही है। वैसे भी 16 रुपये सरकार प्रतिदिन के अनुसार किसान परिवार को दे रही है। सरकार द्वारा दोहराये जा रहे इस कथन के मायने तो यही दिखते हैं। लगता तो यह है कि हमारी कृषि व किसान को ही नहीं। अपितु देश के लोकतंत्र को भी सरकार बाजार के हवाले करना चाहती है। सरकार द्वारा देश के नागरिकों के अधिकार को बाजार व कारपोरेट के रास्ते सीमित करने की चाल तो यही कह रही है। अर्थात लगता है कि हमारा देश अब जनता की बुनियादी आवश्यकतों को पूरी करने की अपेक्षाएं बाजार की आवश्यकताओं को संवैधानिक सहारे से पूरा करने पर सरकार तुल गयी है।

 

ऐसी परिस्थितियों में विपक्ष का मौन देश के लोकतंत्र हित की दृष्टि से समझ से बाहर है। लगता है देश का विपक्ष उस दिन की प्रतीक्षा में बैठा है कि एक दिन मोदी कमजोर होंगे। फिर मैं आऊंगा देश संहालूंगा और इक्का दुक्का रुदन आंदोलन के सहारे तब तक अपनी पुस्तैनी संपत्ति की हिफाजत करूंगा। समझ नहीं आता राजनीति दल जो अपनी विरासत को लेेकर अपने नेताभाव को सुरक्षित करना चाहते हैं वह कैसे सम्भव होगा। जबकि नेता तो राजनीति में इसलिए उतरते हैं कि जिससे देश की जनता व लोगों का आपके द्वारा हित हो। जनता लुटने से बचे पर देश तो पूरी तरह बिकता जा रहाए जैसा आप लोग भी कह रहे हो। तो क्या जब देश बिक चुकेगा, भुखमरी बदहाली का शिकार हो जाएगा। तब उतरोगेघ् अधिकांश दलों के अधिकतर नेता जो देश की राजनीतिक क्षमता की दृष्टि से बौने हो चुके हैंए उन्हें अपने को उस बौनेपन से बाहर निकलकर ईडी, सीबीआई जैसी एजेंसियों के डर से आप लोगों को मुक्त होना पडे़गा। स्पष्ट है कि जो नेता खुद डरा हुआ हैए वह सत्ता का मुकाबला कैसे कर सकता। निश्चित ही आप जो खोने से डरता है, उसके हाथ जनता भी नेतृत्व नहीं देती। हां उन्हें बिल्लियों के भाग्य छीका जिस नेता व दल में ईमानदारी भरी लीडरशिप स्किल्स नही है, उनकी बातें भले अच्छी हो सकती हैं, वे देश में रुदन समारोह भी आयोजित कर सकते हैं पर देश हित में आंदोलन करना बस की बात नहीं। अन्यथा आज देश के किसान वाले आंदोलन की अगुवाई आप कर रहे होते। लोकतंत्र की नुमाइंदगी करने वाले राजनीतिक दलों व नेताओं में यह नेतृत्वहीनता तब आती है, जब वे वंश परम्परा के शिकार होंए परम्परागत पारिवारिक शक्तियों के सहारे पूजी का अंबार लगा चुके हाें, देशहितए जनहित का दर्द मिटने से वैचारिक शक्तिहीनता आ चुकी हो, दल का द्वार कोई एक घराने से होकर जा रहा हो, निष्ठुरता व पुरानेपन के सहारे मन में सत्ता की ललक भर हो। यदि ये सब है, तब ऐसे दलों को राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिए। वर्तमान में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद, अकाली दल, बसपा सहित अनेक दलों में यही सब वृत्तियां जड़ जमा चुकी हैं।

 

इसका मतलब यह नहीं कि बीजेपी इस सबसे अलग है। अपितु इसके भी अधिकांश नेता उक्त परम्परा के शिकार हैं। सत्ता का दुरुपयोग करने वाले व देश की सत्ता एक दो व्यक्तियों के बीच समेट लेने वाले दल में भी भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश का सकारात्मक भविष्य नहीं देखा जा सकता। इस दल की भी तान जब तक छिड़ी है तभी तक है। अपनी जिन नीतियों के सहारे बीजेपी आगे बढ़ रही है, वह जब कभी सत्ता से उतरेगीए तो दुबारा अनंतकाल तक सत्ता में आने के
लिए इसे तरसना पड़ सकता है। वैसे दलीय परिस्थितियां व राजनीतिक स्थितियां इसी दिशा में संकेत कर रही हैं। इन सब परिस्थितियों के बीच भी सभी विपक्ष व सत्ता से जुड़े दलों को कुशल नेतृत्व देश को देने के लिए अपनी वंशावलीए संपत्ति व कारनामों का विश्लेषण करना चाहिए। यही एक रास्ता है। इसी में खुद विपक्षी दलों और देश दोनों का हित समाहित है। तब ही संसद भवन के अंदर के लोकतंत्र और बाहर के लोकतंत्र में समानता होगी और देश में ऐसे उठने वाले आंदोलनों
को सही दिशा मिल सकेगी तथा लोकतंत्र भी मजबूत होगा।

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