देश में बाढ़ जैसे हालात, जानिए कैसे फटते हैं बादल

Edited By vasudha,Updated: 13 Aug, 2018 01:25 PM

how the smash cloud

हिमाचल उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर समेत उत्तर भारत के कई पहाड़ी इलाके आजकल बादल फटने की वजह से विनाशकारी बाढ़ की चपेट में हैं। पिछले चौबीस घंटे के भीतर ही हिमाचल में जारी भारी बारिश  के बीच आधा दर्जन जगहों पर बादल फटने से तबाही मची है...

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): हिमाचल उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर समेत उत्तर भारत के कई पहाड़ी इलाके आजकल बादल फटने की वजह से विनाशकारी बाढ़ की चपेट में हैं। पिछले चौबीस घंटों के भीतर ही हिमाचल में जारी भारी बारिश के बीच आधा दर्जन जगहों पर बादल फटने से तबाही मची है। राज्य में अब तक बरसात का कुल नुक्सान डेढ़ हज़ार करोड़ से पार चला गया है। कुल मिलाकर अब तक सौ से अधिक लोग अकेले हिमाचल में ही मारे जा चुके हैं जबकि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर को मिलकर भारत के 7 राज्यों में बरसात अब तक 774 लोगों की जान ले चुकी है। दक्षिण भारत में भी बारिश ने समान रूप से कहर बरपा रखा है।
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चल-अचल संपत्ति के नुक्सान की स्थिति यह है कि अभी उसका सही ढंग से आकलन तक नहीं हो पाया है। पहाड़ी राज्यों में तो जिधर से देखो बादल फटने की ख़बरें आ रही हैं। गूगल की जानकारी को छोड़ दें तो देश में पहली बार बादल फटने की घटना 1990 में हिमाचल के कुल्लू जिला में हुई थी। अतिवृष्टि के कारण जिला के शॉट नाले में भयंकर बाढ़ आ गयी जिसने तीन दर्जन लोगों को मार डाला। सैंकड़ों एकड़ भूमि और मकान उस समय बह गए थे। उसके बाद कुल्लू के ही पलचान, सैंज, रामपुर के घानवी, चम्बा आदि कई जगहों से बादल फटने  के कारण बहुत ज्यादा नुकसान समय समय पर होता रहा है।  

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आखिर क्या है बादल फटना ?
मौसम वभाग की थियोरी के मुताबिक अगर किसी दस किलोमीटर के इलाके में एक घंटे के तक 100 मिलीमीटर  की रफ्तार से बारिश होती है तो उसे बादल फटना कहा जाता है। हालांकि वर्तमान काल में यह अवधारणा 70 मिलीमीटर तक  लागू हो गयी है। पर्वतीय नदी-नालों और जलीय तंत्र से छेड़छाड़ के कारण आने वाले फ्लैश फ्लड भी बादल फटने के खाते में जोड़ दिए जाते हैं। दरअसल बादल फटने के लिए वैज्ञानिक क्युलोमोनिम्ब्स नाम के बादल को जिम्मेवार बताते हैं। ये बादल अरब सागर और हिंदमहासागर से मानसून के दौरान उठते हैं। भारी जलराशि से परिपूर्ण ये मेघ जब सुदूर हिमालयी  इलाकों में पहुंचते हैं तो अचानक एक ही जगह बरस पड़ते हैं। इसे मेघ विस्फोट या बादल फटना कहते हैं। लेकिन व्यवाहरिक रूप से यह संभव नहीं है कि ऐसे बाद हिन्द महासागर या अरब सागर से  जो जल लेकर चलें वह उसी मात्रा में हिमाचल, उत्तराखंड पहुंचे।

वास्तव में सामान्य आदमी की भाषा में बादल ऐसी जगहों पर फटते हैं जहां आस-पास ऊंची पर्वतमालाएं हों औ नीचे तलहटी में कोई नदी बह रही हो। ऐसे में जब भी कोई मेघ उस नदी के ऊपर से गुजरता है तो दिन की गर्मी के थर्मल इफेक्ट से ऊपर उठता है। उधर संवहनीय नियम के तहत घाटी के ऊपर से अत्यधिक ठन्डे बादल वायु दाब के कारण नीचे की तरफ आते हैं। जब गर्म हवा वाला बादल और ठंडी हवा वाला बादल आपस में मिलते हैं तो ठंडी हवा वाले बादल में  छेद  हो जाता है और उसकी सारी जलराशि एक ही स्थान पर बरस जाती है। यही बादल फटना है। यानी दो बादल आपस में मिलते हैं। गर्म बादल ठंडे बादल में छेद कर देता है और फिर आसमान से कहर टूट पड़ता है। 

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कैसा मंजर होता है ?
जहां बादल फटते हैं वहाँ का मंजर  अत्यंत भयानक होता है। अक्सर ऊपर से बरसा पानी नीचे की स्थितियों को पूरी तरह पलट देता है। यानी जहां कल तक गांव था वहां बादल फटने के बाद स्थितियां ऐसी हो जाती हैं की यदि आपने वहाँ गांव नहीं देखा हो तो आप यकीन ही नहीं करेंगे कि वहां सच में कोई गांव या बस्ती रही होगी। 14 अगस्त 2005 को हिमाचल के रामपुर के समीप घानवी में बादल फटने से ऐसी ही तस्वीर बन गयी थी। पूरा गांव मानो किसी ने पलट कर रख दिया था और लोग तो दूर बड़े बड़े भवनों के निशाँ तक ढूंढना मुश्किल था। उस घटना में डेढ़ सौ लोग मारे गए थे। आस-पास की सैंकड़ों बीघा जमीन बदल फटने के बाद बाढ़ में आये मलबे में दबकर कीच का मैदान भर जाती है। 

क्या है हल ?
हम लोग आम तौर पर अतिवृष्टि से हुए नुक्सान को कुदरत की मर्जी या नाराजगी कहकर टाल जाते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि बादल फटने जैसी घटनाओं को रोकना पूरी तरह से हमारे बस में है।यदि हम हरित पट्टी का अनुपात कायम रखें तो अतिवृष्टि का रौद्र रूप हमने देखने को नहीं मिलेगा। बढ़ती आबादी के लिए आवास और सुविधाएं जुटाने हेतु हमने जमकर हरित कटान किया है। यह उसी का नतीजा है। नब्बे के दशक से पहले किसी ने बादल फटने का नाम तक नहीं सुना था। वनों में वर्षा को संतुलित करने की क्षमता रहती है। पानी ज्यादा भी बरस जाए तो वन भू-क्षरण और बाढ़ की तीव्रता कम करने में सहायक होते हैं।लेकिन इसके विपरीत पेड़ नहीं होने से धरती जल्दी जल-कटाव का शिकार होती है और ज्यादा नुकसान होता है। 

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