1834 ग्लेशियरों के साए में है उत्तराखंड, 75 वर्ग किमी में है 127 झीलों का बसेरा

Edited By Seema Sharma,Updated: 08 Feb, 2021 10:17 AM

uttarakhand is under the shadow of 1834 glaciers

उत्तराखंड से सटी हिमालयी पट्टी पर पर्यावरण से छेड़खानी और ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम सामने आने लगे हैं। इस पहाड़ी राज्य के चमोली के समीप ग्लेशियर टूटने के घटना इसका जीवंत उदाहरण हैं। उत्तराखंड के ग्लेशियरों पर हुए आज तक शोध यही कह रहे हैं कि यहां पर...

नेशनल डेस्क (सूरज ठाकुर): उत्तराखंड से सटी हिमालयी पट्टी पर पर्यावरण से छेड़खानी और ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम सामने आने लगे हैं। इस पहाड़ी राज्य के चमोली के समीप ग्लेशियर टूटने के घटना इसका जीवंत उदाहरण हैं। उत्तराखंड के ग्लेशियरों पर हुए आज तक शोध यही कह रहे हैं कि यहां पर कमजोर होते ग्लेशियर भविष्य में भारी तबाही ला सकते हैं। राज्य सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड के आसपास 1834 ग्लेशियर और 75 वर्ग किलोमीटर पर 127 ग्लेशियर झीलों का बसेरा है। हिमालय पर जमा हो रही ब्लैक कार्बन और पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान के कारण यह ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, शोधकर्ता यहं तक अनुमान लगा चुके हैं कि तापमान में वृद्धि की यही रफ्तार रही तो 2100 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे और पूरी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी।  

 

कहां पर स्थित हैं ग्लेशियर
जून 2006 में डा. बीआर अरोड़ा की अध्यक्षता में ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाले नुकसान का आकलन करने के लिए समिति का गठन किया गया था। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में गंगा बेसिन पर 917, यमुना बेसिन में 50, भागीरथी बेसिन में 277, अलकनंदा बेसिन में 326 और कालीगंगा में 264 ग्लेशियर हैं। प्रदेश में करीब 75 वर्ग किलोमीटर की 127 ग्लेशियर झीलें हैं। समिति ने ग्लेशियर झीलों के प्रभावित क्षेत्रों में पर्यटकों की आवाजाही सीमित करने, ग्लेशियर झीलों की इनवेंटरी बनाने, मौसम पर आटोमेटिक वेटर स्टेशन के नेटवर्क के जरिये नजर रखने की सिफारिश की थी।

 

झीलों का घटता हुआ दायरा
उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसेक) ने सेटेलाइट डाटा के आधार पर पाया है कि 37 सालों में हिमाच्छादित क्षेत्रफल में 26 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। 1980 में नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के ऋषिगंगा कैचमेंट का कुल 243 वर्ग किमी एरिया बर्फ से ढका था, लेकिन 2020 में यह एरिया 217 वर्ग किमी ही रह गया। वहीं अब इसमें दस प्रतिशत की और गिरावट दर्ज की गई है। शोध में ये भी सामने आया है कि इस क्षेत्र में पहले स्थायी स्नो लाइन 5200 मीटर पर थी, जो अब 5700 मीटर तक घट बढ़ रही है।

 

भूकंप, भूस्खलन, हिमस्खलन और बादल फटने की घटनाएं
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाएं नई नहीं हैं  उत्तराखंड में भूकम्प, भूस्खलन, हिमस्खलन और बादल फटने की घटनाएं आम हो गई हैं। आपदाओं के लिए पर्यावरणीय, भू–गर्भीय तथा मानव जनित कई कारण हैं।  पर्यावरण विज्ञानी तथा भू–वैज्ञानिक पिछले काफी समय से इस बात की चेतावनी देते आ रहे हैं कि विकास के नाम पर जिस तरह से मानवीय हस्तक्षेप बढ़ रहा है वह इस पहाड़ी क्षेत्र को धीरे–धीरे भयावह स्थिति की तरफ ले जा रहा है।

 

बिजली परियोजनाओं में बनेंगी 1500 कि.मी. लंबी सुरंगे 
केन्द्र सरकार ने उत्तराखण्ड की जल विद्युत परियोजनाओं से 40000 मेगावाट से लेकर 50000 मेगावाट तक विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा है ताकि भारत के उत्तरी राज्यों की बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। यह सब करने के लिए पर्यावरण से भारी छेड़छाड़ संभव है, कई हजार पेड़ भी इन परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने में कुर्बान कर दिए जाएंगे। कई लाख मीट्रिक टन मलबा नदियों में बहा दिया जाएगा। जिससे नदियों के तटों की ऊंचाई और लंबाई  बढ़ेगी, ऐसा होने पर जब भी बादल फटने या ग्लेशियर टूटने से बाढ़ आएगी तो भारी विनाश होगा। उत्तराखंड में छोटी बड़ी 558 जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। जिनमें कुछ बन चुकी हैं कुछ निर्माणाधीन हैं। इन परियोजनाओं के लिए 1500 किमी. से अधिक सुरंगें बनाई जाएंगीं।

 

दक्षिणी ढलान के ग्लेशियर प्रभावित
उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के वरिष्ठ भू गर्भीय वैज्ञानिक प्रो. डॉ एम.पी.एस. बिष्ट कहते हैं कि कि ऋषि गंगा कैचमेंट एरिया की उत्तरी ढलान के ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं, लेकिन दक्षिणी ढलान के ग्लेशियर में बदलाव देखा गया है। इस ओर के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के ग्लेशियर यदि इसी तरह से पिघलते रहे तो आने वाले समय में इस क्षेत्र के वन्य जीव जंतुओं और वनस्पतियों पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।

 

दो तरह से ब्लैक कार्बन पहुंच रहा है हिमालय पर
वरिष्ठ भू वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी बताते हैं कि इस समय हिमालय में दो तरह का प्रदूषण पहुंच रहा है। एक है बायो मास प्रदूषण (कार्बन डाइऑक्साइड) और दूसरा है एलिमेंट पोल्यूशन (तत्व आधारित प्रदूषण) जो कार्बन मोनोऑक्साइड उत्पन्न करता है। ये दोनों ही तरह के प्रदूषण ब्लैक कार्बन बनाते हैं जो ग्लेशियर के लिये खतरनाक होते हैं। अब तक यह माना जाता रहा था कि हिमलायी जंगलों में लगने वाली आग के चलते ग्लेशियरों में ब्लैक कार्बन जमता है। 

 

यूरोप से हिमालय पर पहुंच रहा है ब्लैक कार्बन
यूरोप के विभिन्न देशों से निकलने वाला प्रदूषण हजारों किलोमीटर दूर हिमालय श्रंखलाओं की सेहत बिगाड़ रहा है। ये प्रदूषण हिमालयी ग्लेशियरों में ब्लैक कार्बन के तौर पर चिपक रहा है। जिस कारण ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार पहले से ज्यादा तेज हो गई है। वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के ताजा शोध में ये बात निकल कर सामने आई कि ग्लेशियरों में स्थित ब्लैक कार्बन का एक बड़ा कारण, यूरोप से तत्व आधारित गैसों के प्रदूषण का वेस्टर्न डिस्टबेंर्स (पश्चिमी विक्षोभ) के साथ यहां तक पहुंचना है। 

 

जंगलों में लगती आग से भी ग्लेशियरों को नुकसान
उत्तराखंड के जंगलों में वाली आग से कई हेक्टेयर जंगल तबाह हो चुके हैं। आग की तपिश हिमालय में मौजूद ग्लेशियरों तक पहुंचती है, जिससे ग्लेशियरों की सेहत पर ख़तरा बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, जंगलों के जलने से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है। आग से निकलने वाली राख और सूक्षम कण ग्लेशियरों पर चिपककर सीधे तौर पर भी बर्फ पिघलने की गति को बढ़ा देते हैं। डॉ डोभाल कहते हैं कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ने से हिमालय में एवलांच आने का खतरा और बढ़ जाता है, जिससे बड़ा नुकसान हो सकता है।

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