जब कस्तूरबा के चार रुपए रखने से महात्मा गांधी हुए नाराज

Edited By vasudha,Updated: 02 Oct, 2018 12:23 PM

when mahatma gandhi became angry on kasturba four rupees

आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती है। देश भर में उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है। राष्ट्रपिता से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जिनके बारे में आज भी बहुत लोग नहीं जानते हैं...

नेशनल डेस्क: आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती है। देश भर में उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है। राष्ट्रपिता से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जिनके बारे में आज भी बहुत लोग नहीं जानते हैं। साप्ताहिक समाचार पत्र ‘नवजीवन’ में महात्मा गांधी द्वारा 1929 में लिखा एक आलेख सामने आया है। इससे पता चलता है कि वह सत्य और नैतिकता से कोई भी समझौता नहीं करने के पक्ष में थे। कहने को तो बात महज चार रुपए की थी, लेकिन जब यह सिद्धांत विरुद्ध हो तो राष्ट्रपिता उसे बिल्कुल सहन नहीं कर पाते थे।
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‘नवजीवन’ एक साप्ताहिक अखबार था, जिसका प्रकाशन गांधी जी करते थे। 'मेरी व्यथा, मेरी शर्मिंदगी' शीर्षक से प्रकाशित लेख में गांधी जी ने गुजरात में अहमदाबाद के अपने आश्रम में अपनी पत्नी कस्तूरबा समेत कुछ अन्य आश्रमवासियों की कमियों की आलोचना की है। उन्होंने यह सफाई भी दी है कि उन्होंने इस लेख को लिखने का फैसला क्यों किया। गांधी जी ने लिखा कि मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अगर मैं ऐसा नहीं करता तो यह कर्तव्य का उल्लंघन होता है। राष्ट्रपिता ने कहा कि उन्हें अपनी आत्मकथा में कस्तूरबा के कई गुणों का वर्णन करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई, लेकिन उनकी कुछ कमजोरियां भी हैं जो इन सदगुणों पर अघात करती हैं।

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गांधी जी ने लिखा कि एक पत्नी का कर्तव्य मानते हुए उन्होंने अपना सारा धन दे दिया, लेकिन समझ से परे यह संसारी इच्छा अब भी उनमें है। उन्होंने लिखा कि एक या दो साल पहले कस्तूरबा ने 100 या 200 रुपए रखे थे, जो विभिन्न मौकों पर अगल-अलग लोगों से भेंट के तौर पर मिले थे। आश्रम का नियम है कि वह अपना मानकर कुछ नहीं रख सकती हैं, भले ही यह उन्हें दिया गया हो। इसलिए ये रुपए रखना अवैध है। उन्होंने लिखा कि आश्रम में कुछ चोरों के घुस जाने की वजह से उनकी पत्नी की ‘चूक’ पकड़ में आई। लेख में लिखा कि उनके लिए और मंदिर (आश्रम) के लिए दुर्भाग्य था कि एक बार उनके कमरे में चोर घुस आए। उन्हें कुछ नहीं मिला, लेकिन कस्तूरबा की चूक पकड़ में आ गई।
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गांधी जी ने लिखा कि कस्तूरबा ने गंभीरता से पश्चाताप किया, लेकिन यह लंबे वक्त तक नहीं चला और असल में ह्रदय परिवर्तन नहीं हुआ। उनका धन रखने का मोह खत्म नहीं हुआ। उन्होंने लिखा कि कुछ दिन पहले कुछ अजनबियों ने उन्हें चार रुपए भेंट किए। नियमों के मुताबिक, ये रुपए दफ्तर में देने के बजाय उन्होंने अपने पास रख लिए। इस बात को अपने लेख में ‘चोरी’ बताते हुए गांधी जी लिखते हैं कि आश्रम के एक निवासी ने उनकी गलती की ओर इशारा किया। उन्होंने रुपयों को लौटा दिया और संकल्प लिया कि ऐसी चीजें फिर नहीं होंगी। राष्ट्रपिता लिखते हैं कि मेरा मानना है कि वह एक ईमानदार पश्चाताप था। उन्होंने संकल्प लिया कि पहले की गई कोई चूक या भविष्य में इस तरह की चीज करते हुए वह पकड़ी जाती हैं तो वह मुझे और मंदिर को छोड़ देंगी।

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