चीन के आक्रामक तेवर

Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Mar, 2018 03:02 AM

chinas aggressive pitch

चीन में आप जवान, बूढ़े, रईस, छात्र किसी से भी पूछें कि उनके देश का पूरा नाम ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ है जबकि उनकी सरकार न तो उदारवादी, न ही लोकतांत्रिक है, यहां तक कि गणतांत्रिक तक नहीं है तो कमोबेश सबसे एक जैसा और वास्तव में थोड़ा आक्रामक रुख...

चीन में आप जवान, बूढ़े, रईस, छात्र किसी से भी पूछें कि उनके देश का पूरा नाम ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ है जबकि उनकी सरकार न तो उदारवादी, न ही लोकतांत्रिक है, यहां तक कि गणतांत्रिक तक नहीं है तो कमोबेश सबसे एक जैसा और वास्तव में थोड़ा आक्रामक रुख लिया उत्तर ही सुनने को मिलेगा। 

वे दलील देते हैं कि अगर लोकतंत्र का अर्थ काम करने व शिक्षा की स्वतंत्रता तथा अच्छे जीवन स्तर से है तो यह सब उनके पास है। चीनी नागरिकों को नि:शुल्क शिक्षा तथा भोजन व कपड़े कम दरों पर मिलते हैं। शिक्षा पूरी करने के बाद प्रत्येक पुरुष तथा महिला के लिए नौकरी करना अनिवार्य है जिसके साथ उन्हें सरकार की ओर से फाइनांस हुए दीर्घ अवधि व कम ब्याज के ऋण पर मकान मिलता है। ऐसे में उनकी दलील है कि चुनाव में वोट डालने का यह अर्थ नहीं हो सकता है कि कोई व्यवस्था बेहतर है। 

परंतु समझदारी तथा विवेक सहित वोट के अधिकार का प्रयोग महत्वपूर्ण है। बेशक इससे तेजी से आर्थिक विकास न होता हो परंतु इससे अपने देश के लिए फैसला लेने की परिपक्वता अवश्य मिलती है। हाल ही में चीन की संसद ने एकमत होकर कई विधेयक पास किए हैं जो 21वीं सदी को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण हैं। ये सुधार चीन की रस्मी संसद द्वारा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के जीवन भर पद पर बने रहने के लिए संविधान संशोधन को अपार बहुमत सहित पारित करने के बाद सामने आए हैं। माओ के निधन के बाद चीन के संविधान के तहत किसी भी राष्ट्रपति को केवल दो बार सत्ता में रहने की परम्परा का पालन किया जाता था। ताजा संविधान संशोधन के लिए डाले गए 2964 वोटों में से केवल 2 ही इसके विरोध में थे। 

तिनानमिन आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले छात्र नेता वुएर कैक्स (जो अब ताईवान में रह रहे हैं) का कहना है कि वर्तमान चीनी नेतृत्व ने माओ के दौर से कोई सबक नहीं सीखा है। ऐसा लगता है कि अब अंर्तराष्ट्रीय मंच पर भी शी इसी तरह की नीतियों को बढ़ावा देंगे। राष्ट्रपति पद पर अनिश्चित अवधि के अलावा शी को वित्तीय तथा सैन्य सहित अपार शक्तियां भी दी गई हैं। चीन भ्रष्टाचार रोधी एजैंसी अथवा एन.एस.सी. के लिए नए नियम भी तैयार कर रहा है। शी के उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार रोधी अभियान के चलते हाल के दिनों में अनेक अधिकारियों को जेल में बंद किया गया है। शासन की शक्ति न्यायपालिका पर भी भारी पड़ रही है और भ्रष्टाचार के आरोपियों के पास अपना पक्ष रखने के लिए न के बराबर कानूनी विकल्प हैं। स्पष्ट है कि चीन पर वामपंथी दल का नियंत्रण 1960 के दशक जितना ही मजबूत हो रहा है। 

आखिर चीन में हो रहे इन बदलावों का भारत तथा विश्व के साथ उसके संबंधों पर क्या प्रभाव होगा? किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक ‘फाइनांशियल रिजर्व’ के साथ चीन अब आक्रामक होते हुए विश्व शक्ति के रूप में खुद को स्थापित करना चाहता है। लोकतांत्रिक सिद्धांतों व उदारवादी व्यापार नीतियों के बिना कोई भी सुपरपावर विश्व राजनीतिक प्रणाली के लिए अच्छी खबर नहीं होगी। खनिज अथवा तेल से धनी हुए अधिकतर अफ्रीकी व मध्य-पूर्व के जिन भी देशों में लोकतंत्र नहीं है, वहां नागरिक अधिकारों का हमेशा दमन हुआ है। सोवियत रूस के तहत पूर्वी यूरोप में भी ऐसे ही हालात थे। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि जहां यूरोप और रूस आर्थिक संकटों से जूझ रहे हैं वहीं पुतिन की जगह लेने के लिए शी काफी उतावले हैं। तो क्या हम एक और ‘बंद आर्थिक व्यवस्था’ की ओर बढ़ रहे हैं? जहां तक भारत का संबंध है, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका जैसे हमारे पड़ोसी देशों में आक्रामक चीन की उपस्थिति कोई शुभ संकेत नहीं है।

हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अप्रैल में चीन यात्रा पर जाने वाली हैं और भारत-चीन संयुक्त बैठक भी होनी है जहां दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष एक-दूसरे से मुलाकात करेंगे परंतु लड़ाकू चीन आसानी से भारत के साथ सीमा विवादों का निपटारा शायद ही होने दे। क्या गारंटी है कि वह 1961 की तरह संधियां तोड़ कर भारत में घुसपैठ अथवा यकायक आक्रमण नहीं करेगा? यह भी एक प्रश्न है कि कमजोर होते यूरोप के चलते संयुक्त राष्ट्र में कौन-सा देश लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए खड़ा होगा? शी की पसंदीदा परियोजनाओं में से एक ‘वन रोड वन बैल्ट’ भारत के लिए बड़ी चिंता का ऐसा अन्य मुद्दा है। यह परियोजना पाकिस्तान तथा अन्य देशों को भले ही सम्पन्न कर दे परंतु इस सम्पन्नता से ही आतंकवाद को और बढ़ावा मिल सकता है।

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