कांग्रेस ने तो ‘आत्महत्या’ करने की ठान ली है

Edited By ,Updated: 23 May, 2016 12:19 AM

the congress has decided to commit suicide

भाजपा बहुत खुश है और कांग्रेस दुखी। भाजपा का प्रोपेगंडा शुरू हो गया और कांग्रेस में तुक्का फजीहत। भाजपा ...

भाजपा बहुत खुश है और कांग्रेस दुखी। भाजपा का प्रोपेगंडा शुरू हो गया और कांग्रेस में तुक्का फजीहत। भाजपा कह रही है कि देश जल्दी ही कांग्रेस मुक्त होगा यानी भाजपा पूरे देश पर एकछत्र राज करेगी जैसे कांग्रेस ने किया। असम की जीत ने उसे यह भरोसा दिया है। हरियाणा की तरह नए राज्य में उसका खाता खुला है। जैसे कुछ साल पहले कर्नाटक में उसकी लाटरी लगी थी। और कांग्रेस ने अपने 2 राज्य खो दिए। असम के साथ केरल भी उसके हाथ से फिसल गया। 
 
5 राज्यों के चुनाव क्या वाकई में भाजपा के लिए अच्छी खबर है और कांग्रेस के लिए बुरी। यह सवाल उठना लाजमी है। दरअसल ये चुनाव मेरी उस थीसिस को और पुख्ता करते हैं जो  मैं 2009 से लगातार कह रहा हूं। इस थीसिस की पहली अवधारणा है कि देश बुनियादी तौर पर बदल रहा है और राजनीतिक दल व नेता अभी भी पुराना ढोल ही पीट रहे हैं। पुरानी पिटी पिटाई लीक पर चल रहे हैं। लोगों का मानस बदल रहा है, सामाजिक मूल्य बदल रहे हैं, परम्पराएं टूट रही हैं, नए मूल्यों और संस्कारों का सृजन हो रहा है। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि भारत में एक नया समाज बन रहा है जो अपनी हजारों सालों की मान्यताओं को तोड़ भी रहा है और परिष्कार भी कर रहा है।
 
इस बदलाव से राजनीति कैसे अछूती रह सकती है?
इस चुनाव का सबसे बड़ा संकेत कांग्रेस की हार में छिपा है। कांग्रेस भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी पार्टी है। देश आजाद कराने में उसका बड़ा रोल रहा है। देश निर्माण में और लोकतंत्र बने रहने में उसकी भूमिका अहम है। इससे कौन इंकार कर सकता है? पर जैसा कि प्रकृति का नियम है पुराने को खत्म होना होगा और नए को आना होगा। और इस परिवर्तन में पुराने को भी अपने में मूलभूत बदलाव करने होंगे। कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह यह नहीं समझ पा रही है कि वह पुरानी पड़ चुकी है और नए परिपे्रक्ष्य में प्रासंगिक बने रहने के लिए पुराने को भी बदलना होगा। 
 
कांग्रेस असम में हारी क्योंकि वह सड़े-गले वंशवाद से ऊपर नहीं उठ पाई। तरुण गोगोई ने 15 साल शासन किया। उम्र हो गई और सोच लिया कि असम में लोकतंत्र की जगह राजशाही होनी चाहिए। बजाय उत्तराधिकारी पार्टी में खोजने के, परिवार में खोजने लगे। कांग्रेस नेतृत्व को इसका विरोध करना चाहिए और अगर समय रहते समाधान ढूंढ लेते तो मेरा दावा है कि भाजपा वहां नहीं आती। हेमंत बिश्व सरमा पार्टी में नम्बर दो था और कायदे से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उसका दावा बनता था। उसको हक नहीं मिला, वो भाजपा में चला गया।
 
कुछ साल पहले पश्चिम बंगाल में ममता अपना हक मांग रही थी, पर पार्टी ने हिम्मत नहीं दिखाई। ममता ने पार्टी तोड़ दी। तृणमूल कांग्रेस बनाई। वह सी.पी.एम. से लड़ती रही और 2011 में उसने लैफ्ट के 35 साल के शासन को उखाड़ फैंका। अगर ममता को बागडोर पार्टी ने दी होती तो वहां आज कांग्रेस की सरकार होती। कांग्रेस बंगाल में खत्म हो गई। जनाधार विहीन नेताओं ने बेड़ा गर्ग कर दिया। इसी तरह तमिलनाडु में भी जी.के. मूपनार की पार्टी ने नहीं सुनी। वह जयललिता से दोस्ती पर अड़ी रही। जबकि मूपनार करुणानिधि के साथ जाना चाहते थे। 
 
उस वक्त जयललिता पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। उनकी छवि खराब थी। मूपनार ने समर्थकों के साथ नया दल बनाया तमिल मानिल कांग्रेस और लोकसभा के चुनाव में करुणानिधि के साथ चुनाव लड़ा। कांग्रेस साफ हो गई और मूपनार देवेगौड़ा सरकार के किंगमेकर बने। आज तक कांग्रेस बंगाल और तमिलनाडु में खड़ी नहीं हो पाई। अतीत से सबक लेते। असम में नेतृत्व परिवर्तन करते तो असम में पार्टी जिंदा रहती। अब खतरा उसके सिमटने का है। असम में लोगों को विकल्प चाहिए था। कांग्रेस ने नहीं दिया तो भाजपा में उसने खोज लिया। 
 
बंगाल में 35 साल की ऊब खत्म होने में वक्त लगेगा। सी.पी.एम. और कांग्रेस दोनों ही अपने में बदलाव करने से कतरा रही हैं। पुराने जुमले हैं और पुराना राग जिसे लोग नापसंद करते हैं। ममता में अभी भी लोगों का विश्वास है और उसे भाजपा से बेहतर मानते हैं। इसलिए मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जो ज्वार भाजपा को लेकर उठा था, हवा बनाने की कोशिश की थी, शारदा घोटाला, नारद सिं्टग आप्रेशन और तृणमूल को मुस्लिम आतंकवाद का समर्थक बनाने का उसका प्रयास नाकाम रहा। वो पानी का बुलबुला साबित हुआ।
 
तमिलनाडु में भी लोगों को कांग्रेस और भाजपा से कोई उम्मीद नहीं है। कांग्रेस वहां पूरी तरह से खत्म हो गई है। भाजपा खड़ी नहीं हो पा रही है। द्रमुक ने घोटालों के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। 93 साल के करुणानिधि आज भी मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। हिम्मत नहीं कि नया लीडर जनता को दें क्योंकि परिवार टूट जाएगा। जयललिता ने पुरानी गलतियों से सबक लिया। आज भ्रष्टाचार के पुराने मामलों को छोड़कर उस पर कोई नया आरोप नहीं। 
अपनी जिगरी दोस्त शशिकला को घर से बाहर करने में उसने कोई रहम नहीं दिखाया। करुणानिधि को भी ऐसा करना चाहिए था। पार्टी के अंदर नया विकल्प देना था, चूक गए तो जनता ने सहन नहीं किया।
 
केरल में भी ज्यादा विकल्प नहीं हैं। भाजपा कितने भी हाथ-पैर मार ले वह रेस में नहीं है। कांग्रेस पर वही भ्रष्टाचार के आरोप। नए की तलाश का डर। विकास करने से कोताही। सी.पी.एस. ने चालाकी की। इस बार 92 साल के अच्युतानंदन पर दाव नहीं खेला और अब नया नेता चुना है। पिनयारी विजयन ज्यादा यंग तो नहीं है पर नया विकल्प है। जनता को पसंद आ सकता है। ममता और जयललिता राज्य के बाहर भले ही उनकी जैसी भी इमेज हो वो लोकप्रिय हैं। ममता ने ग्रामीण इलाकों में काफी पैठ बना ली है। यह बात पत्रकारों को समझ में नहीं आती। जयललिता को आप भले ही लोकलुभावन वादों वाली नेता कह सकते हैं पर हकीकत में उसने वैल्फेयर स्टेट को नए सिरे से परिभाषित किया है जो राजनीतिक पंडितों को पसंद न आए तो क्या करें?
 
अब सवाल यह है कि भाजपा क्यों इतना खुश है। हकीकत में उसे दुखी होना चाहिए क्योंकि बंगाल और केरल ने उसे रिजैक्ट किया है। उसे उम्मीद थी यहां बेहतर करने की पर वह जीरो साबित हुई। 2017 के आने वाले चुनाव में उसके पास कुछ भी नहीं है। यू.पी. पर उसे उम्मीद है जहां उसने 71 सीटें जीती थीं। इस हिसाब से तो उसे भारी बहुमत से सरकार बनानी चाहिए। पर लगता है वह नम्बर दो पार्टी भी नहीं बनेगी। 
 
कांग्रेस की तो पूछो ही मत। कोई उम्मीद नहीं। कारण साफ। भाजपा को केंद्र में विकास के वादे पर वोट दिया। एक नए विकल्प के तौर पर। सरकार बनने के बाद वह घर वापसी, लव जेहाद, बीफ में जुट गई। योगी आदित्यनाथ को आगे कर दिया। संगीत सोम जैसे को बढ़ाया। विकास पर कोई चर्चा नहीं। अब जाति समीकरण  बिठाने के लिए केशव मौर्य को निकाला। राम मंदिर के नाम पर। दलित के नाम पर। कोई गोट नहीं बैठती दिखती।
 
भाजपा कुछ भी कह ले, जब तक वह यू.पी. में सरकार नहीं बनाती, बिहार में नहीं आती वह अखिल भारतीय पार्टी का दावा कर ले, कांग्रेस का विकल्प तो हो सकती है पर बेदम कांग्रेस का, आजादी के बाद वाली कांग्रेस का विकल्प नहीं हो सकती। उसके लिए उसे अपने को बदलना होगा। देश की विभिन्नता को अपनाना होगा। सभी धर्मों और लोगों को साथ लेकर चलने का विश्वास देना होगा। 
 
यह सिर्फ हिन्दुत्व से नहीं होगा। उसे उदार बनना होगा। योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज जैसों से निजात पानी होगी। इस देश के उदारवादी हिन्दुत्व को अपनाना होगा। मुस्लिम और ईसाई को लेकर चलना होगा। उनके खिलाफ जहर उगलना बंद करना होगा। क्या ऐसा होगा? लगता नहीं है। इसलिए भाजपा तात्कालिक विकल्प बनने की बात कर ले पर लम्बे समय तक नहीं। कांग्रेस ने तो जैसे आत्महत्या करने की ठान ली है। नए उभरते समाज को नया विकल्प चाहिए। वो आ रहा है। उदारवादी, परिवारवाद से मुक्त।              
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