शेष विश्व के सामने चीन का गंभीर खतरा

Edited By ,Updated: 25 Apr, 2024 05:17 AM

china poses a serious threat to the rest of the world

हाल ही में चीन को लेकर एक गंभीर तथ्य का रहस्योद्घाटन हुआ है। प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी अमरीकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने चेतावनी दी है कि भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव को चीन प्रभावित करने का प्रयास कर सकता है। उसके अनुसार, चीन ‘आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस’ के...

हाल ही में चीन को लेकर एक गंभीर तथ्य का रहस्योद्घाटन हुआ है। प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी अमरीकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने चेतावनी दी है कि भारत में हो रहे लोकसभा चुनाव को चीन प्रभावित करने का प्रयास कर सकता है। उसके अनुसार, चीन ‘आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस’ के माध्यम से भारतीय मतदाताओं का राजनीतिक दलों की ओर झुकाव बदलने या उन्हें भटकाने की कोशिश करेगा। बकौल माइक्रोसॉफ्ट, चीन ऐसा ही कुछ जनवरी में ताइवान के चुनाव में कर चुका था। 

यह कोई संयोग नहीं कि जब विस्तारवादी चीन द्वारा भारत में चुनाव को प्रभावित करने का खुलासा हुआ, तब उसी कालांतर में ‘वल्र्ड इनइक्वालिटी लैब’ की एक भारत-विरोधी रिपोर्ट सामने आ चुकी थी। इसमें मोदी सरकार को ‘अधिनायकवादी’ बताते हुए देश में ‘असमानता’ बढऩे का आरोप लगाया गया है। यह रिपोर्ट बनाने वालों की प्रामाणिकता क्या है? इसकी जांच किए बिना भारतीय मीडिया के एक वर्ग ने उसे अंतिम सत्य मानकर उनकी रिपोर्ट को हाथों-हाथ उठा लिया। यह स्थिति तब है, जब दुनिया की विश्वसनीय संस्थाएं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष भारत में गरीबी घटने से संबंधित शोधपत्रों को प्रस्तुत कर चुके हैं। इसी वर्ष नीति आयोग ने भी बीते 9 वर्षों के दौरान लगभग 25 करोड़ भारतीयों के अत्यंत गरीबी की श्रेणी से बाहर निकलने का दावा किया था। 

‘वल्र्ड इनइक्वालिटी लैब’ ने अपनी रिपोर्ट को जिन सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार किया है, उसमें ‘हुरन’ नामक संस्था भी शामिल है, जिसका मुख्यालय चीन के आर्थिक केंद्र शंघाई में स्थित है। रूपर्ट हुगेवर्फ इसके संस्थापक हैं, जिन्हें उनके चीनी नाम हू रन से भी जाना जाता है, वहीं भारत में ‘हुरन’ इकाई का संचालन मुंबई स्थित अनस रहमान जुनैद करते हैं। अब विडंबना की पराकाष्ठा देखिए कि जो हुरन चीन में स्थापित है, जहां कम्युनिस्ट तानाशाही के अंतर्गत मानवाधिकारों का भीषण शोषण होता है, वह भारत में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई मोदी सरकार को ‘अधिनायकवादी’ बता रहा है। गत वर्ष ही एक रिपोर्ट से खुलासा हुआ था कि भारत में ‘न्यूजक्लिक’ नामक वामपंथी प्रोपेगंडा न्यूज-पोर्टल चीन सरकार द्वारा प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से वित्तपोषित हो रहा था। 

वास्तव में, आज जिस प्रकार इस्लामी आतंकवाद के साथ चीन वैश्विक शांति को चुनौती दे रहा है, उसमें अमरीका की पूर्ववर्ती नीतियों का भी बड़ा योगदान है। साढ़े 3 दशक पहले विश्व 2 ध्रुवों में विभाजित था, जिसमें एक का प्रतिनिधित्व अमरीका (1776 से अब तक), तो दूसरे का साम्यवादी सोवियत संघ (1922-91) कर रहा था। इसी रस्साकशी में अमरीका ने नाटो नामक सैन्य गठजोड़ बनाया, तो ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा पर मुजाहिद्दीनों को सोवियत संघ के खिलाफ एकत्र करके कालांतर में तालिबान सहित कई इस्लामी आतंकवादी संगठनों का ताना-बाना बुन दिया। 

सोवियत संघ के विघटन होने के बाद मान लिया गया कि विश्व अब मुक्त-बाजार पूंजीवाद, पश्चिमी लोकतंत्र और उदारवाद से चलेगा। इस बात को प्रसिद्ध अमरीकी राजनीतिक विज्ञानी, अर्थशास्त्री और लेखक फ्रांसिस योशिहिरो फुकुयामा ने भी अपनी पुस्तक ‘द एंड ऑफ लास्ट हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ में स्थापित करने का प्रयास किया। परंतु उनका आकलन गलत सिद्ध हुआ। दुनिया किसी पूर्व निर्धारित मार्ग पर या व्यवस्था से नहीं चल सकती। तब अमरीका ने चीन (1949 से अबतक) को मुक्त-बाजार के बल पर अपने आगोश में लेना चाहा, जिसके राजनीतिक अधिष्ठान ने वर्ष 1978 में माक्र्स-लेनिन-स्टालिन-माओ केंद्रित नीतियों का परित्याग करके अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना प्रारंभ कर दिया था। 

इस कदम से दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने चीन को अपना आधार बनाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते चीन विश्व की बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति बन गया। अब चीन, अमरीका का स्थान लेना चाहता है। यह ठीक है कि कई दोहरे मापदंडों और विरोधाभासी दृष्टिकोणों को आत्मसात करने वाला अमरीका द्विदलीय प्रणाली के साथ एक जीवंत लोकतंत्र है। वहां मीडिया और न्यायपालिका स्वतंत्र है। इसकी तुलना में वर्तमान चीन में एक अस्वाभाविक मिश्रित प्रणाली है, जहां एक रूग्ण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है, जो एक-दलीय साम्यवाद और साम्राज्यवादी मानसिकता द्वारा संचालित है। चीन में असहमति तो स्वीकार नहीं, बल्कि कुचल दिया जाता है। 

तानाशाह चाहे हिटलर हो या फिर स्टालिन वे अपने नागरिकों के साथ शेष विश्व के लोगों के लिए भी खतरा बन चुके थे। उसी तरह साम्राज्यवादी चीन का वर्षों से भारत, जापान सहित 17 देशों के साथ सीमा-जल विवाद चल रहा है, तो अमरीका के साथ उसका व्यापारिक टकराव चरम पर है। अपने ‘शत्रुओं’ को साधने हेतु चीन द्वारा एशियाई-अफ्रीकी देशों को अपने ‘कर्ज के मकड़ जाल’ में फंसाकर उससे अपने सामरिक हितों की पूर्ति करना कोई छिपा तिलिस्म नहीं रह गया है। इसी उपक्रम से चीन अपने मित्र देश, पाकिस्तान के साथ श्रीलंका की आर्थिकी को निगल चुका है। क्षेत्र में साम्राज्यवादी चीन द्वारा परमाणु हथियारों को बढ़ाना भी बड़े खतरे का प्रतीक है। अमरीकी सरकार की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2023 में चीन के पास लगभग 400 परमाणु हथियार थे, जो अब बढ़कर 500 से अधिक हो गए हैं। 

‘बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट’ नामक रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि यदि चीन इसी तरह से परमाणु आयुध बढ़ाता रहा, तो वर्ष 2035 तक इसकी संख्या डेढ़ हजार हो जाएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि इससे चीन प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से एक साथ भारत, जापान और अमरीका को साधने का प्रयास कर रहा है। भारत की लोकतांत्रिक, पंथनिरपेक्षी और बहुलतावादी व्यवस्था को चीन से खतरा है। अपनी विस्तारवादी मानसिकता के कारण चीन अन्य पड़ोसी देशों (पाकिस्तान सहित) की भांति भारत को भी अपना दुमछल्ला बनाना चाहता है। 

इसके लिए चीन प्रत्यक्ष रूप से एक, तो अप्रत्यक्ष तौर पर 2 मुख्य उपक्रमों को एक साथ चला रहा है। वह अपने सैन्यबल पर 1959 से लगभग 3500 किलोमीटर लंबी सीमा को संकुचित करने का प्रयास कर रहा है। वही चीन अप्रत्यक्ष रूप से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय माओवादियों और शहरी नक्सलियों को दशकों से हरसंभव मदद पहुंचा रहा है, तो अब अपनी वित्तपोषित संस्थाओं द्वारा अपने अनुकूल और भारत को लांछित करने वाला नरेटिव गढ़ रहा है, जिससे दुनिया में हमारे देश की स्थिति कमजोर दिखे।-बलबीर पुंज 
 

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