पहले चरण में कम मतदान ने नेताओं की चिंता बढ़ाई

Edited By ,Updated: 24 Apr, 2024 05:52 AM

low voting in the first phase increased the concern of the leaders

पहले चरण के कम मतदान ने राजनीतिक विश्लेषकों को इसके कारणों पर ज्यादा दिमागी मशक्कत करने पर मजबूर कर दिया है। यह इशारा क्या है? सात चरणों के चुनाव में फुल एंड फाइनल नतीजा क्या होगा, यह तो 4 जून को ही ई.वी.एम्स से निकलेगा लेकिन पक्ष-विपक्ष के तर्कों...

पहले चरण के कम मतदान ने राजनीतिक विश्लेषकों को इसके कारणों पर ज्यादा दिमागी मशक्कत करने पर मजबूर कर दिया है। यह इशारा क्या है? सात चरणों के चुनाव में फुल एंड फाइनल नतीजा क्या होगा, यह तो 4 जून को ही ई.वी.एम्स से निकलेगा लेकिन पक्ष-विपक्ष के तर्कों के बीच आम आदमी से ज्यादा नेताओं की चिंता बढ़ी है। पहले चरण के अपेक्षाकृत हल्के मतदान ने उन्हें अपनी रणनीति को बदलने पर भी मजबूर कर दिया है। एक बार तो लगा था कि चुनावों में जो धारा बह रही है, उसमें वोटर खूब सामने आएगा। चुनाव आयोग ने भी तमाम अतिरिक्त कोशिशें कीं। आधारभूत समस्याओं को खत्म किया। बुजुर्गों के लिए अतिरिक्त व्यवस्था की।

85 साल से ज्यादा के वोटरों के लिए घर में ही टीम भेजने की व्यवस्था की। महिलाओं को भी आकर्षित करने की कोशिश की। पर बात कुछ बनती नहीं दिख रही है। फिलहाल तो पूरा ठीकरा तपते मौसम पर डाल दिया गया है। यह बात भी सही है कि 19 अप्रैल 2019 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश मुजफ्फरनगर में औसत तापमान 35 डिग्री सैल्सियस था जबकि 2024 को पहले चरण  के इसी चुनावी दिन तापमान 39 डिग्री रहा। आयोग इस बात की चेतावनी पिछले कुछ दिनों से देता रहा है कि गर्मी पहले की अपेक्षा ज्यादा पड़ेगी। हो भी ऐसा ही रहा है। 

पहले चरण के चुनाव में इस बार यानी 19 अप्रैल, 2024 को 63 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया (हालांकि चुनाव आयोग के संशोधित डाटा में इसमें थोड़ी-बहुत वृद्धि संभव है), जबकि 2019 के पहले चरण के चुनाव (जोकि 11 अप्रैल को हुआ था) में मतदान का यह प्रतिशत 69.43 रहा था।  यानी 8 दिन की गर्मी का अंतर था। पर खास तौर से चुनाव आयोग से लेकर प्रधानमंत्री तक ज्यादा मतदान करने पर जोर दे रहे हों तो यह मतदान प्रतिशत कम ही नजर आ रहा है। यानी मतदान में अपेक्षित उत्साह की कमी, और वैसे भी  इस बार भारतीय जनता पार्टी ने अपने कुनबे (एन.डी.ए.) समेत जब अपना लक्ष्य 400 का प्रचारित किया है। यह भी खूब अपील की गई कि इस बार जीत का अंतर और अधिक होना चाहिए।

मतदान प्रतिशत में यह कमी देश के लगभग सभी हिस्सों में देखी गई। पश्चिम बंगाल में पिछली बार 85 प्रतिशत  तो इस बार 81 प्रतिशत वोट पड़ा। यू.पी. का यह आंकड़ा  68 से घटकर 62 प्रतिशत हो गया। कैराना में 7, सहारनपुर में 5, रामपुर में 8, पीलीभीत में 5 और बिजनौर में 7 प्रतिशत की कमी रही। बिहार की 4 सीटों के लिए इस चरण में यह कमी 2 प्रतिशत की थी। तमिलनाडु में 3, पश्चिम बंगाल में 4, उत्तराखंड में 5, राजस्थान में 6 और मध्य प्रदेश में 7 प्रतिशत की कमी देखी गई। छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक प्रतिशत की बढ़ौतरी (2019 में यह 66.26 थी, इस बार 67.53 रही) देखी गई। ऐसी ही मेघालय में 3 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। 

अब सवाल यह है कि यह कमी क्यों रही? क्या इसके लिए सिर्फ तपता मौसम ही जिम्मेदार है या कुछ और? और अगर कुछ और है तो क्या? कुछ संभावनाएं हैं। इसे विभिन्न दल अपने हिसाब से बताने की कोशिश कर रहे हैं। अगर भाजपा इसका जिम्मेदार हतोत्साहित विपक्ष को बता रही है तो विपक्ष इसे सत्ता पक्ष की नाकामी बताने में कोई चूक नहीं कर रहा है और सरकार की नीतियों से नाखुशी बताने में कोई संकोच नहीं कर रहा है। क्या सचमुच इसे मतदाताओं का अनमनापन या उबाऊ होने की शुरूआत बताया जाए या फिर कुछ और? वैसे इसी अप्रैल में एक रिपोर्ट आई थी जिसके अनुसार  पहली बार का युवा वोटर मतदान के प्रति बहुत आकर्षण नहीं दिखा रहा है। इस वर्ग के 38 प्रतिशत वोटरों ने ही अपना पहचान पत्र बनवाने में रुचि दिखाई। एक अरब, 40 करोड़ की आबादी वाले इस देश में 18-19 साल के मात्र एक करोड़ 80 लाख युवाओं ने वोटर कार्ड बनवाना चाहा। 

चाहते तो इस आयु वर्ग में देश के 4.9 करोड़  वोटर यह हक हासिल कर सकते थे। बिहार में तो इस श्रेणी के मात्र 17 प्रतिशत लोगों ने ( 9 लाख 30 हजार)  यह हक हासिल करने में आनंद उठाया। दिल्ली और उत्तर प्रदेश भी कोई बहुत आगे नहीं रहे। दिल्ली में 21 प्रतिशत और यू.पी. में 23 प्रतिशत  18-19 साल के युवाओं ने वोटर कार्ड बनवाया। महाराष्ट्र में यह संख्या 27 प्रतिशत रही। चिंता की बात यह है कि 21 राज्यों में इस आयु वर्ग के वोटर कार्ड बनवाने वाले युवाओं की संख्या 30 प्रतिशत से कम रही। पीठ थपथपाने के इस काम में तेलंगाना ( 67 प्रतिशत), जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के बच्चे अच्छे रहे, जहां यह आंकड़ा 60 प्रतिशत से ऊपर रहा। ये वे वोटर हैं जिन पर देश की दोनों बड़ी पार्टियों की निगाहें हैं। वोटर कार्ड बनवाने वाले इन युवाओं में से कितनों ने वोट डाला है, या डालेंगे, इस पर नतीजों यानी 4 जून के बाद  अलग से विश्लेषण होगा। 

2019 के चुनावों में राष्ट्रवाद, पुलवामा, किसान सम्मान योजना की बयार चली और विपक्ष चारों खाने चित्त नजर आया। वायदों की भरमार उधर से भी खूब हुई। 6,000 रुपए साल की  किसान योजना ने राहुल गांधी की 72 हजार रुपए साल की न्याय योजना को तरजीह नहीं दी। नवम्बर 22 में हुए कर्नाटक और हिमाचल के चुनावों में कांग्रेस ने गारंटी का इस्तेमाल करते हुए चुनाव जीत लिए तो राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शब्द की सम्प्रेषण क्षमता को कायदे से समझा और इतना इस्तेमाल किया कि यह शब्द ही अब उनका बन गया। 24 के चुनावों में मोदी की गारंटी छाई हुई है। भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र की इस बार की टैगलाइन ही ‘मोदी की गारंटी’ है। जबकि 2019 में ‘संकल्पित भारत, सशक्त भारत’ , 2014 में ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की टैगलाइन हुआ करती थी। 

ऐसे में जब यह उम्मीद की जा रही हो कि 5 - 7 सात प्रतिशत वोट बढ़ेगा , कम होना चिंता का कारण तो है ही। यह भी सही है कि विपक्षी गठबंधन तमाम बाधाओं के साथ ही सामने आ पा रहा है और अभी तक कम से कम कोई बड़ा  नैरेटिव सामने नहीं ला सका है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जरूर गैर-राजनीतिक न्याय यात्रा कर वोटरों को आकर्षित करने की कोशिश की। उधर महंगाई, बेरोजगारी के मुद्दे पर कोई आंदोलन खड़ा कर पाने की कोशिश भी नहीं हो पाई तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर राम मंदिर तक ऐसे काम किए हैं जिससे उसका वोटर एक मत होता नजर आ रहा है। राष्ट्रवाद उसका सबसे प्रिय मुद्दा है और लाभार्थी वोट बैंक एक नई खोज रही। अग्निवीर और किसानों के मामले ने जरूर सरकार को परेशान किया। लेकिन चौधरी चरण सिंह समेत 4 हस्तियों को भारत रत्न ने यह मामला भी धीमा करने की कोशिश की। विपक्ष की ओर से जाति जनगणना का मुद्दा कुछ ही दिन के लिए सामने आया और नीतीश कुमार के भाजपा के फिर से साथ आने के बाद कमजोर पड़ गया। 

विपक्ष एंटी इंकम्बैंसी की बात करने लगा है तो भाजपा प्रो इंकम्बैंसी पर जोर दे रही है। लेकिन असलियत यह है कि पन्ना प्रमुख से लैस भारतीय जनता पार्टी इतनी संगठित पार्टी होने के बावजूद भी एक समस्या से जूझती रही है। वह यह है कि उसके कार्यकत्र्ता वोटरों को पूरी तरह से मतदान केंद्रों तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। कार्यकत्र्ताओं की बैठक में यह ङ्क्षचता प्रधानमंत्री से लेकर कई नेता उठाते रहे हैं। कहा यह भी जाता रहा है कि उसके कार्यकत्र्ता नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में स्वत: जीत देखने लग जा रहे हैं। कहीं 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाने की मशक्कत और वोट बढऩे की आशा के बीच वोट प्रतिशत कम होना खतरे की घंटी तो नहीं है। यह बात भी सही है कि पहले चरण से बहुत कुछ तय नहीं होने जा रहा है लेकिन यह बात तो शत-प्रतिशत सही है कि मतदाताओं का मतदान के प्रति आकर्षण बढ़ते ही रहना चाहिए। लोकतंत्र के लिए यह अहम है।-अकु श्रीवास्तव
 

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