Edited By ,Updated: 22 Dec, 2016 03:26 PM
दिव्य इंद्रिय सुख
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय छह ध्यानयोग
यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
दिव्य इंद्रिय सुख
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय छह ध्यानयोग
यतो यतो निश्चलति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।26।।
शब्दार्थ : यत: यत:—जहां-जहां भी; निश्चलति—विचलित होता है; मन:—मन; चञ्जलम्—चलायमान; अस्थिरम्—अस्थिर; तत:तत:— वहां-वहां से; नियम्य—वश में करके; एतत्—इस; आत्मनि—अपने; एव— निश्चय ही; वशम्—वश में; नयेत्—ले आए।
अनुवाद : मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहां कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहां से खींचे और अपने वश में लाए।
तात्पर्य : मन स्वभाव से चंचल और अस्थिर है। किन्तु स्वरूपसिद्ध योगी को मन को वश में लाना होता है, उस पर मन का अधिकार नहीं होना चाहिए। जो मन को (तथा इंद्रियों को भी) वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है और जो मन के वशीभूत होता है वह गोदास अर्थात इंद्रियों का सेवक कहलाता है।
गोस्वामी इंद्रियमुख के मानक से भिज्ञ होता है। दिव्य इंद्रियसुख वह है जिसमें इंद्रियां ऋषिकेश अर्थात इंद्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की सेवा में लगी रहती हैं। शुद्ध इंद्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्णचेतना या कृष्णभावनामृत कहलाती है। इंद्रियों को पूर्ण वश में लाने की यही विधि है। इससे भी बढ़कर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है।
(क्रमश:)