इनके बचपन के दिन भी क्या दिन थे, पढ़ें ‘भारतवर्ष’ के महान सपूतों की कहानियां

Edited By ,Updated: 25 Jan, 2017 01:04 PM

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हमारे देश में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने बचपन में ही ऐसे कार्य किए जो हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका बाल्यकाल ही बता रहा था कि आगे जाकर वे होनहार बनने वाले हैं। यहां

हमारे देश में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने बचपन में ही ऐसे कार्य किए जो हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका बाल्यकाल ही बता रहा था कि आगे जाकर वे होनहार बनने वाले हैं। यहां हम उन लोगों का उल्लेख कर रहे हैं, जिनका बचपन में ही संसार में नाम हो गया और वे प्रेरणा पुंज हो गए। उल्लेखनीय बात यह है कि उनके ये कार्य संस्कृति के अंग भी बन गए हैं। वीर पुत्र भरत का स्थान भी प्रेरणादायक बालकों में बड़ा महत्व रखता है। भरत के पिता का नाम राजा दुष्यंत और माता का नाम शकुंतला था। भरत बचपन से ही सिंहों के साथ खेला करते थे। कहते हैं कि सिंह और सिंह शावक ही उनके मित्र थे। वे सिंह शावकों के दांत गिना करते थे। जो सिंहों के साथ खेलता हो वह कितना वीर और निर्भय होगा। इसकी कल्पना आप आसानी से कर सकते हैं। भरत के कारण ही हमारे देश का नाम ‘भारत वर्ष’ या ‘भरत का देश’ पड़ा।


भक्त प्रह्लाद के पिता का नाम हिरण्यकश्यप था। वह एक अहंकारी नास्तिक राजा था और अपने आपको ही ईश्वर मानता था। उसने तपस्या कर ऐसा वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह अजेय और अमर हो जाएगा तथा उसकी मृत्यु कभी भी और कहीं भी नहीं होगी। ईश्वर ने उसे वरदान दिया था कि वह न दिन में मरेगा और न रात में मरेगा। न घर में मरेगा और न घर के बाहर मरेगा, न मनुष्य के हाथों मरेगा और न देवताओं के हाथों मारा जाएगा। इस प्रकार वह अमर होना चाहता था।


प्रह्लाद की ईश्वर में अटूट भक्ति थी। उसने अपने पिता को अहंकार छोड़कर ईश्वर की भक्ति करने को कहा परन्तु हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र की एक भी नेक सलाह नहीं मानी। अंत में ईश्वर ने ‘नरसिंह अवतार’ लेकर संध्या के समय (जबकि न दिन था न रात थी) देहरी के ऊपर-अर्थात (न घर में न घर के बाहर) तथा ‘नरसिंह’ के रूप में अर्थात (न मानव और न देवता) नरसिंह का नया अनोखा रूप लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया तथा प्रजा को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई।


एक बार गौतम बुद्ध उपवन में टहल रहे थे। उनके भाई ने उसी समय एक हंस का शिकार किया। तीर से बिंधा खून से लथपथ हंस संयोगवश सिद्धार्थ के पास आकर गिरा। सिद्धार्थ ने उसकी सेवा सुश्रुषा की तथा उसके प्राण बचाए। उसी समय देवदत्त ने आकर सिद्धार्थ से अपने मारे हुए हंस की मांग की। सिद्धार्थ ने वह हंस देवदत्त को देने से इंकार कर दिया। अंत में मामला राजदरबार में पहुंचा। तब राजा शुद्धोधन ने सारा विवाद सुनकर निर्णय दिया कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। सिद्धार्थ ने हंस बचाया है अत: इस पक्षी पर सिद्धार्थ का पहला स्वामित्व है। इस प्रकार दया, धर्म और न्याय की शिक्षा सिद्धार्थ के बचपन से ही हमें मिलती है। सिद्धार्थ आगे जाकर गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने प्राणी मात्र के प्रति दयावान होने का भी संदेश अपने बचपन में ही दिया था। जो आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। ईसा मसीह अपने बचपन से ही विचारवान और गंभीर प्रवृत्ति के थे। बचपन में जब वह गिरजाघर जाया करते थे तब वहां पादरियों व धर्मगुरुओं से ऐसे-ऐसे प्रश्र पूछा करते थे जिनका उत्तर देने में वे सोच-विचार में पड़ जाते थे। इस प्रकार ईसा मसीह ने अपने बचपन से ही विचारवान होने का परिचय दिया था।


पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब ने भी अपने बचपन से ही भाईचारे, पारिवारिक प्रेम और ‘ममत्व’ का परिचय दिया था। वह अपने बचपन में ही उस समय सबसे अधिक दुखी हो उठते थे जब वह गरीबों पर अत्याचार होते देखते थे। उन्होंने पाया कि गरीबों का शोषण ही उनके दुखी होने का मुख्य कारण है। मनुष्यों में ऊंच-नीच की भावना ठूंस-ठूंस कर भरी हुई है। यही गरीबों को सर्वाधिक दुख पहुंचाती है। अत: जीवन में समानता के वे सबसे बड़े समर्थक बने और इस्लाम धर्म के प्रवर्तक माने गए। हजरत मोहम्मद साहब ने सारे संसार को भाईचारे का अमर संदेश दिया।


बालक विष्णुगुप्त जोकि आगे चलकर इतिहास में चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध हुए, अपने बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। जो बातें उन्होंने अपने बचपन में ठानीं, आगे जाकर अपनी युवावस्था में पूरा कर दिखाया। वे बचपन से ही मानव के मानव द्वारा शोषण के घोर विरोधी थे। आदिगुरु शंकराचार्य को अपने बचपन से ही अनेक ग्रंथ मुखाग्र याद थे। दस वर्ष की आयु में वह वेदों का पाठ करने लगे थे। 32 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। इस आयु में आने के पहले जीवन भर वे ऐसे कई कार्य करते रहे जिससे हिन्दू धर्म की पुर्नस्थापना और उसकी व्याख्या हुई। इतनी कम आयु में उन्होंने हमारे देश के चार धाम बद्रिकाश्रम, रामेश्वर, द्वारका और जगन्नाथपुरी की स्थापना की।


वह मात्र 32 वर्ष की आयु में इतने काम कर गए जिन्हें कोई सामान्य आदमी अपने चार जन्मों में भी पूरा नहीं कर पाता। सुर-तुलसी और मीरा को अपने बचपन में सैंकड़ों पद याद थे। अपने बचपन में ही वे ‘जन आकर्षण’ के केन्द्र बन गए थे। गुरु नानक अपने बचपन से ही बड़ा सुंदर भाषण देने लगे थे। उनकी वाणी इतनी मधुर थी कि लोग उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे। 


अकबर 13 वर्ष की आयु में राजगद्दी पर बैठा था जबकि सामान्य रूप से यह आयु तो खेलने-कूदने की होती है। शिवाजी बचपन से ही शूरवीर और निर्भय थे। उसी प्रकार झांसी की रानी के नाम से विख्यात लक्ष्मीबाई ने अपने बचपन से ही सारी शस्त्र विद्याएं सीख ली थीं।


स्वामी दयानंद ने अपने बचपन से ही छुआछूत का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था। इसी प्रकार गांधी जी ने भी बचपन में ही छुआछूत के बारे में सोचना प्रारम्भ कर दिया। समय का पालन करना उन्होंने इसी आयु में सीख लिया था। अपने मित्र को आम न खिला पाने के कारण वह इतने दुखी हो गए थे कि उन्होंने सारे मौसम फिर आम नहीं खाए जबकि आम उन्हें सर्वाधिक पसंद थे।


हरिश्चन्द्र के जीवन चरित्र से उन्होंने बचपन से ही सत्य बोलने की प्रतिज्ञा की थी। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी 6-7 वर्ष की आयु से ही बाल कविताएं करने लगी थीं और अपने बचपन में ही कवयित्री होने का संकेत दे चुकी थीं। बारह वर्ष की आयु में जयशंकर प्रसाद को हिमालय देखने का सौभाग्य मिला और वहीं से उनका कवि हृदय फूट पड़ा। उन्होंने बहुत कम आयु में कविताएं लिखना आरम्भ कर दिया था।


प्रसिद्ध कवियों में निराला जी तथा माखन लाल चतुर्वेदी तथा सुमित्रानंदन पंत ने भी बचपन से ही कविताएं लिख कर अपने से बड़ों को आश्चर्यचकित कर दिया था। महान देशभक्त भगत सिंह बचपन से ही निर्भय थे तो वल्लभभाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस, जय प्रकाश नारायण, सीमांत गांधी अब्दुल गफ्फार खां और नेहरूजी बचपन से ही यह ज्ञापित कर चुके थे कि आगे जाकर बड़े बनेंगे। प्राचीन काल में एकलव्य ने गुरु को अपना अंगूठा दान किया और नाम कमाया तो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने प्राणों को कम आयु में ही उत्यर्जित किया और फांसी पर चढ़ कर हमारे प्रेरणास्रोत बने। प्रेरणा किसी भी व्यक्ति की धरोहर नहीं, वह हमें छोटे से बच्चे से भी मिल सकती है। ज्ञान यदि शत्रु से भी मिल रहा हो तो उसे ले लेना चाहिए। विष से अमृत बन रहा हो तो उसे बना लेना चाहिए और सीख यदि किसी छोटे से बच्चे से भी मिल रही हो तो उस सीख को सौ बार ग्रहण कर लेना चाहिए। अच्छी बात और प्रेरणा हमें मरते दम तक नहीं छोडऩी चाहिए। उसे सदा ग्रहण करते रहना चाहिए।

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