श्रीमद भगवद गीता का ये प्ररेक मंत्र, हर मुश्किल से निकलने में करेगा सहायता

Edited By Punjab Kesari,Updated: 31 Dec, 2017 03:57 PM

srimad bhagavad gita

जीओ गीता के संग,  सीखो जीने का ढंग  ध्यान रखें- मन नहीं गिरे! उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।।

जीओ गीता के संग, 
सीखो जीने का ढंग 

 

ध्यान रखें- मन नहीं गिरे!

 

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:।। —गीता 6/5

 

उद्धरेत्, आत्मना, आत्मानम्, न, आत्मानम्, अवसादयेत्, आत्मा, एव, हि, आत्मन:, बंधु:, आत्मा, एव, रिपु:, आत्मन:।।


भावार्थ: शारीरिक अस्वस्थता में मन नहीं गिरे, यह ध्यान रखें। मनोबल ऊंचा बना रहे। दृढ़ विचार शक्ति, ऊंचा मनोबल अपने साथ मित्रता है। कमजोर मानसिकता, लडख़ड़ाई हुई नकारात्मक सोच, अपने साथ शत्रुता!


श्रीमद भगवद्गीता का यह अद्भुत प्रेरक मंत्र है। अपने आप से अपने आपको उठाओ, अपने को गिराओ नहीं। शारीरिक बीमारी प्राय: तन और मन दोनों को गिरा देती है। अस्वस्थ होने पर कुछ तो शरीर गिरता है, लेकिन मन की नकारात्मक सोच व निराशा और अधिक डगमगा देती है। ऐसी स्थिति में श्री गीता जी का यह श्लोक याद आ जाना चाहिए। जब-जब मन लडख़ड़ाने, डगमगाने, घबराने या उकताने लगे, तब-तब इस श्लोक को सामने लाओ।


भक्तचरिताङ्क में एक गृहस्थ संत की कथा आती है। संत को भोजन करवाने के लिए किसी ग्राम साहूकार से उसने उधार राशन लिया। साहूकार ने कहा, ‘‘तू पैसे दे नहीं पाएगा, बाहर मैंने खेतों में एक कुआं बनवाना है। इसके बदले खुदाई कर दे।’’ बात मान  ली। कुएं की खुदाई प्रारंभ की। एक दिन सायंकाल खुदाई करते-करते वह स्वयं उसमें गिर गए और आधे से ज्यादा शरीर उस में दब गया। अंधेरा हो चला था। दूर-दूर तक कोई आवाज सुनने वाला था नहीं। 


तभी गीता जी के इसी भावानुसार मन को संभाला, शरीर गिरा लेकिन मन को नहीं गिरने दिया। मन ही मन भगवान का स्मरण किया। यह विचार बनाया कि प्रभु तो यहां भी साथ हैं। उत्साह और विश्वास को जगाया। ऊंचे स्वर से भगवान के नाम का कीर्तन प्रारंभ कर दिया। रात्रि के समय आवाज दूर तक गूंजी। एक राजा शिकार खेलकर कहीं दूर वहां से निकल रहा था। भगवन्नाम का दिव्य स्वर कान में पड़ा। सैनिकों को भेजा। जब पता चला कि कुएं में गिरा, मिट्टी में दबा कोई व्यक्ति नाम संकीर्तन में मस्त है। राजा स्वयं गए, अद्भुत भाव दृश्य, सैनिकों को आज्ञा देकर बाहर निकलवाया और अपने साथ अपने राज्य में ले आए।


विचार करें- शरीर गिरा, यदि मन भी यह सोच कर गिर जाता कि अब प्राण बचने संभव नहीं तब कुछ भी हो सकता था। मन को नहीं-गिरने दिया। स्वयं से स्वयं को उठाया-परिणाम कितना अच्छा!


आओ, पक्का करें कि मन को नहीं गिराएंगे। भगवान कृपा करें शरीर भी स्वस्थ रहे, शरीर भी न गिरे, लेकिन यदि कुछ लगने लगे, तभी मन को संभालो, मन को शरीर की अस्वस्थता से नहीं, भगवान से जोड़ो। यही अपने साथ मित्रता है, मन का भी गिर जाना यह स्वयं के साथ शत्रुता है, हर समय मनोबल गिराकर जीना, क्या स्वयं से स्वयं का नुक्सान नहीं। आओ, विचार विश्वास और मनोबल ऊंचा उठाकर अपने मित्र बनें, शत्रु नहीं।


वस्तुत: यहां गिरना और उठना शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति है।

गिरते हैं जब ख्याल, तो गिरता है आदमी।
जिसने इन्हें संभाला, वो खुद संभल गया।।

अर्जुन के साथ यही तो था। रथ में भगवान से भी ऊंचे आसन पर था, लेकिन जब मन गिरा तो शरीर भी इसके पिछले भाग में जा गिरा। त्वचा जलने लगी और शरीर लडख़ड़ाने लगा, सिर चकराने लगा। श्री गीता का यह श्लोक बहुत मजबूत प्रेरणा है स्वयं को गिरने से बचाने के लिए तथा यदि शरीर अस्वस्थता में गिरा रहा है या  गिर रहा है तो उसे फिर उठाने के लिए आओ प्रेरणा लें और उठाएं अपने आपको।

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