...तो इस तरह होती है भगवद्धाम की प्राप्ति

Edited By Updated: 19 Sep, 2015 02:23 PM

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान) गीता व्याख्या अध्याय (4) कृष्ण भावनामृत का सिद्धांत

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)

गीता व्याख्या  अध्याय (4)

कृष्ण भावनामृत का सिद्धांत

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्र्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ 24॥

ब्रह्म—परा प्रकृति; अर्पणम्—अर्पण; ब्रह्म—ब्रह्म; हवि—घृत; ब्रह्म—आध्यात्मिक; अग्रौ—हवन रूपी अग्रि; ब्रह्मणा—आत्मा द्वारा; हुतम्—अॢपत; ब्रह्म—परमात्मा; एव—निश्चय ही; तेन—उसके द्वारा; गन्तव्यम्—पहुंचने योग्य; ब्रह्म—आध्यात्मिक; कर्म—कर्म में; समाधिना—पूर्ण एकाग्रता के द्वारा।

अनुवाद : जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में पूर्णत: लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है क्योंकि उसमें हवन भी ब्रह्म है और हवि भी उस ब्रह्म की होती है।

तात्पर्य : यहां इसका वर्णन किया गया है कि किस प्रकार कृष्ण भावनाभावित कर्म करते हुए अंतत: आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त होता है। कृष्णभावनामृत विषयक विविध कर्म होते हैं, जिनका वर्णन अगले श्लोकों में किया गया है, किन्तु इस श्लोक में तो केवल कृष्णभावनामृत का सिद्धांत वर्णित है।

भौतिक कल्मष से ग्रस्त बद्धजीव को भौतिक वातावरण में ही कार्य करना पड़ता है, किन्तु फिर भी उसे ऐसे वातावरण से निकलना ही होगा। जिस विधि से वह ऐसे वातावरण से बाहर निकल सकता है, वह कृष्णभावनामृत है। उदाहरण के लिए यदि कोई रोगी दूध की बनी वस्तुओं के अधिक खाने से पेट की गड़बड़ी से ग्रस्त हो जाता है तो उसे दही दिया जाता है, जो दूध ही से बनी अन्य वस्तु है।

भौतिकता में ग्रस्त बद्धजीव का उपचार कृष्णभावनामृत के द्वारा ही किया जा सकता है जो गीता में यहां दिया हुआ है। यह विधि यज्ञ या विष्णु को प्रसन्न करने के लिए किए गए कार्य कहलाती है। भौतिक जगत के जितने भी अधिक कार्य कृष्णभावनामृत में या केवल विष्णु के लिए किए जाते हैं वातावरण पूर्ण तल्लीनता से उतना ही अधिक आध्यात्मिक बनता रहता है।

ब्रह्म शब्द का अर्थ है ‘आध्यात्मिक’। भगवान् आध्यात्मिक हैं और उनके दिव्य शरीर की किरणें ब्रह्मज्योति कहलाती हैं- यही उनका आध्यात्मिक तेज है। प्रत्येक वस्तु इसी ब्रह्मज्योति में स्थित रहती है, किन्तु जब यह ज्योति माया या इंद्रियतृप्ति द्वारा आच्छादित हो जाती है तो यह भौतिक ज्योति कहलाती है। यह भौतिक आवरण कृष्णभावनामृत द्वारा तुरंत हटाया जा सकता है। अतएव कृष्णभावनामृत के लिए अर्पित हवि, ग्रहणकर्ता, हवन तथा फल ये सब मिलकर ब्रह्म या परम सत्य हैं।

माया द्वारा आच्छादित परमसत्य पदार्थ कहलाता है। जब यही पदार्थ परमसत्य के निमित्त प्रयुक्त होता है तो इसमें फिर से आध्यात्मिक गुण आ जाता है। 

कृष्णभावनामृत मोहजनित चेतना को ब्रह्म या परमेश्वर में रूपांतरित करने की विधि है। जब मन कृष्णभावनामृत में पूरी तरह निमग्र रहता है तो उसे समाधि कहते हैं। ऐसी दिव्यचेतना में सम्पन्न कोई भी कार्य यज्ञ कहलाता है। आध्यात्मिक चेतना की ऐसी स्थिति में होता, हवन, अग्रि, यज्ञकर्ता तथा अंतिम फल सब कुछ परब्रह्म से एकाकार हो जाता है। यही कृष्णभावनामृत की विधि है।

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