Edited By pooja,Updated: 06 Jul, 2018 05:18 PM
कहां खो गई चाह हमारी,
कहां खो गई चाह हमारी,
कैसे लुप्त हुई मुसकान?
फिर से याद आ गई हमको,
विस्मृत बचपन की वो शान।
बाल सुलभ थी कल्पनाएँ,
जीवन - सत्य से थे अनजान,
तितलियों का पीछा करते,
पूरा करने को अरमान।
हृदय प्रफुल्लित रहता था,
हम गाते थे उन्मुक्त- गान,
तब कलरव सुनकर विहगों का,
फिर छेड़ा करते अपनी तान।
धरती के सीने पर करते,
गिरते - पड़ते रज- स्नान,
सानिध्य मिला था प्रकृति का,
संचित करने को तब ज्ञान ।
शिक्षा पाई ऎसे न थी,
खूब खिंचवाए अपने कान,
गुरुजनों से भय लगता था,
चाहे कितने थे शैतान।
संस्कारों से हुए थे पोषित,
बनने को आदर्श महान,
अब चाह यही, होंगे न्योछावर,
देश का होगा जब आह्वान।
कविता विजय
सुबोध पब्लिक स्कूल, एयरपोर्ट जयपुर