आखिर क्यों न हो नक्सलियों से बातचीत?

Edited By ,Updated: 04 Apr, 2024 05:52 AM

after all why should there not be talks with naxalites

गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई और नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए। हालांकि सरकार की कार्रवाई में बीते 2 महीनों में 31 नक्सली मारे गए और कई बड़े नाम आत्मसमर्पण कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ में नई सरकार बनते ही उप-मुख्यमंत्री विजय शर्मा ने 2 बार मंशा...

गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई और नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए। हालांकि सरकार की कार्रवाई में बीते 2 महीनों में 31 नक्सली मारे गए और कई बड़े नाम आत्मसमर्पण कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ में नई सरकार बनते ही उप-मुख्यमंत्री विजय शर्मा ने 2 बार मंशा जाहिर की कि सरकार बातचीत के जरिए नक्सली समस्या का निदान चाहती है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नक्सलियों के गढ़ दंतेवाड़ा में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने नक्सलियों से हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करते हुए आश्वासन दिया था कि उनकी सरकार उनके साथ बातचीत के लिए तैयार है और वह हर जायज मांग को मानेगी। इसके बाद 21 मार्च को दंडकारण्य स्पैशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता विकल्प ने पत्र जारी कर कहा कि हम सरकार से बातचीत को तैयार हैं लेकिन सरकार पहले हमारी शर्तों को माने। शर्तों में सुरक्षा बलों के हमले बंद करना, गरीब आदिवासियों को झूठे मामलों में फंसाने से रोकने जैसी बातें हैं। 

समझना होगा कि नक्सली कई कारणों से दबाव में हैं। सरकार की स्थानीय आदिवासियों को फोर्स में भर्ती करने की योजना भी कारगर रही है। एक तो स्थानीय लोगों को रोजगार मिला, दूसरा स्थानीय जंगल  के जानकार जब सुरक्षा बलों से जुड़े तो अबुझमाड़ का रास्ता इतना अबुझ नहीं रहा। तीसरा जब स्थानीय जवान नक्सली के हाथों मारा गया और उसकी लाश गांव-टोले में पहुंची तो ग्रामीणों का रोष नक्सलियों पर बढ़ा। एक बात जान लें कि दंडकारण्य में नक्सलवाद महज फैंटसी, गुंडागर्दी या फैशन नहीं है।

वहां खनन और विकास के लिए जंगल उजाडऩे व पारंपरिक जनजाति संस्कारों पर खतरे तो हैं और नक्सली अनपढ़-गरीब आदिवासियों में यह भरोसा भरने में समर्थ रहे हैं कि उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के लिए ही उन्होंने हथियार उठाए हैं। यह भी कड़वा सच है कि नक्सल विरोधी कार्रवाई में बड़ी संख्या में निर्दोष लोग भी जेल में हैं व कई मारे भी गए, इसी के चलते अभी सुरक्षा बल आम लोगों का भरोसा जीत नहीं पाए हैं। लेकिन यह सटीक समय है जब नक्सलियों को बातचीत के लिए झुका कर इस हिंसा का सदा के लिए अंत कर दिया जाए। बस्तर में लाल-आतंक का इतिहास महज 40 साल पुराना है। बीते 20 सालों में यहां लगभग 15 हजार लोग मारे गए जिनमें 3500 से अधिक सुरक्षा बल के लोग हैं। 

बस्तर से सटे महाराष्ट्र, तेलंगाना, उड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश में इनका सशक्त नैटवर्क है। समय-समय पर विभिन्न अदालतों में यह भी सिद्ध होता रहा है कि प्राय: सुरक्षा बल बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार देते हैं। वहीं घात लगा कर सुरक्षा बलों पर हमले करना, उनके हथियार छीनना भी यहां की सुर्खियों में है। दोनों पक्षों के पास अपनी कहानियां हैं कुछ सच्ची और बहुत-सी झूठी। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलियों का पुराना नेतृत्व अब कमजोर पड़ रहा है असंगठित या छोटे समूहों का नैटवर्क तलाशना बेहद कठिन होगा। बस्तर अंचल का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर है और उसके बड़े इलाके में अभी भी मूलभूत सुविधाएं या सरकारी मशीनरी दूर-दूर तक नहीं है।

नक्सली कमजोर तो हुए हैं लेकिन अपनी हिंसा से बाज नहीं आ रहे। कई बार वे अपने अशक्त  होते हालात पर पर्दा डालने के लिए कुछ न कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनका आतंक कायम रहे। याद करें 21 अक्तूबर 2016 को न्यायमूर्ति मदन लौकुर और ए.के. गोयल की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में राज्य सरकार के वकील को सख्त आदेश दिया था कि पुलिस कार्रवाई तात्कालिक राहत तो है लेकिन स्थाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थायी हल निकालना चाहिए। 

बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों नहीं जोड़ा जाए। हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व आदिवासी समाज ङ्क्षचता जताता रहा है कि अरण्य में लगातार हो रहे खून-खराबे से आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी परिणति है कि आदिवासियों की बोली, संस्कार, त्यौहार, भोजन सभी कुछ खतरे में हैं। यदि ईमानदार कोशिश की जाए तो नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें हथियार डाल कर देश  की लोकतांत्रिक मुख्यधारा में शामिल होने के लिए राजी किया जा सकता है। 

भारत सरकार मिजोरम और नागालैंड जैसे छोटे राज्यों में शांति के लिए हाथ में रायफल लेकर सरेआम बैठे उग्रवादियों से न केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। प्रधानमंत्री निवास पर उन अलगाववादियों को बाकायदा बुलाया  जाता है और उनके साथ हुए समझौतों को गोपनीय रखा जाता है जो दूर देश में बैठ कर भारत में जमकर वसूली, सरकारी फंड से चौथ  वसूलने और गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों पर हमला कर उनके हथियार लूटने का काम करते हैं। फिर नक्सलियों से ऐसी कौन-सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती-वे न तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और न ही वे किसी दूसरे देश  से आए हुए हैं।-पंकज चतुर्वेदी 
    

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