दोहरे मापदंड, पूर्वाग्रह से उपजा ‘डर’ का माहौल

Edited By ,Updated: 06 Dec, 2019 02:19 AM

an environment of  fear  arising from double standards prejudice

विगत रविवार (एक दिसम्बर) को मुम्बई में उद्यमियों से संबंधित पुरस्कार समारोह का आयोजन हुआ। इस दौरान प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज ने कुछ सवाल उठाए। उन्होंने भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर द्वारा नाथूराम गोडसे को कथित रूप से देशभक्त कहने, भीड़...

विगत रविवार (एक दिसम्बर) को मुम्बई में उद्यमियों से संबंधित पुरस्कार समारोह का आयोजन हुआ। इस दौरान प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज ने कुछ सवाल उठाए। उन्होंने भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर द्वारा नाथूराम गोडसे को कथित रूप से देशभक्त कहने, भीड़ द्वारा एक समुदाय विशेष के लोगों की हत्या पर ‘‘भय का वातावरण’’ पैदा होने और ‘‘असहिष्णुता’’ पर केन्द्र की मोदी सरकार को घेरा। इस संबंध में उद्योग जगत के कुछ लोग बजाज का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन कर रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक हो जाता है कि राहुल बजाज द्वारा उठाए प्रश्नों को तर्क-तथ्य की कसौटी पर कसा जाए और सही-गलत के मापदंड पर उसे परखने हेतु निष्पक्ष विवेचना की जाए। 

मैं गांधी जी का बहुत सम्मान करता हूं। मेरा मानना है कि सनातन भारत की धरती ने पिछले कई सदियों में जिन सर्वश्रेष्ठ पुत्रों को जन्म दिया है, उनमें गांधी जी का नाम भी निर्विवाद रूप से अन्य मां भारती के बेटों की भांति आदरणीय है। नि:संदेह, गांधी जी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे या कोई भी हत्यारा हमारे समाज में किसी प्रशंसा का पात्र नहीं बन सकता, क्योंकि भारतीय संस्कृति और उसकी कालजयी परम्परा विचारों के आधार पर न ही हिंसा को प्रोत्साहित करती है और न ही स्वतंत्र भारत का कानून व संविधान इसकी स्वीकृति देता है। 

भारत में उन लोगों का कोई स्थान नहीं, जो गांधी जी के कुछ विचारों से सहमत न हों
क्या गांधी जी और उनके विचारों पर देश के सभी नागरिकों की एक राय संभव है? क्या इस संबंध में कोई मतभेद नहीं हो सकता? यदि ईश्वर को लेकर विचारों में मतभिन्नता हो सकती है, तो गांधी जी और उनके दर्शन की क्यों नहीं? क्या संविधान प्रदत्त और लोकतांत्रिक भारत में उन लोगों का कोई स्थान नहीं है, जो गांधी जी के कुछ विचारों से सहमत न हों? नि:संदेह, मैं गोडसे और गांधी जी पर प्रज्ञा सिंह ठाकुर के विचारों से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूं, किन्तु क्या गांधी जी और गोडसे पर भिन्न राय रखने वाली साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का बहिष्कार उचित है? 

अपने कुकृत्य के कारण भारतीय राजनीति में ‘गोडसे’ नाम अस्पृश्य, मानवता-बहुलतावाद विरोधी, कट्टरता-फासीवाद या अपशब्द का अभिप्राय बन गया है किन्तु उन नामों का क्या- जिनका संबंध क्रूरता, जेहाद, हिंसा और विरोधियों के दमन से रहा है। सोवियत संघ के क्रूर तानाशाह जोसेफ स्टालिन का इतिहास लाखों निरपराधों के रक्त से सना हुआ है। उसने अपने शासनकाल में लाखों लोगों को केवल इसलिए मौत के घाट उतरवा दिया था क्योंकि वे सभी उसके विचारों और नीतियों से असहमत थे। फिर भी तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत एम. करुणानिधि ने अपने छोटे पुत्र (एम.के. स्टालिन) का नाम जोसेफ स्टालिन के नाम पर रख दिया। क्या राहुल बजाज जैसे लोगों ने इस नाम पर कभी आपत्ति की है? 

इसी तरह उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र अखिलेश यादव का घरेलू नाम मैसूर के पूर्व शासक टीपू सुल्तान से प्रभावित होकर ‘‘टीपू’’ रखा था, जिसने अपने दौर में मैसूर और आस-पास के क्षेत्रों में हजारों-लाखों हिन्दुओं को इसलिए मरवा दिया क्योंकि वे सभी इस्लामी दर्शन के अनुसार ‘‘काफिर’’ थे। यही नहीं, हिन्दी सिनेमा का प्रसिद्ध दम्पति जोड़ा सैफ अली खान-करीना कपूर ने अपने पुत्र (तैमूर) का नाम उसी क्रूर इस्लामी आक्रमणकारी तैमूरलंग पर रखा है, जिसने 1398-99 में भारत पर हमला करते हुए हजारों ‘‘काफिर’’ हिन्दुओं का नरसंहार कर अपने मजहबी दायित्व का निर्वहन किया था। 

तुगलक मार्ग और औरंगजेब मार्ग का जिक्र
देश की राजधानी दिल्ली की स्थिति भी अलग नहीं है, यहां सिरफिरे मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के नाम पर ‘तुगलक मार्ग’ अब भी उपस्थित है। वर्ष 2015 में जब दिल्ली स्थित ‘औरंगजेब मार्ग’ का नाम परिवर्तित करके पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नाम पर रखा गया था, तब स्वघोषित सैकुलरिस्टों और वामपंथियों ने यह जानते हुए भी इसका विरोध किया था कि औरंगेजब ने ही कश्मीरी हिन्दुओं को जेहादी मानसिकता से बचाने में रक्षक बने सिख गुरु तेग बहादुर जी को इस्लाम कबूल नहीं करने पर अमानवीय यातनाओं के बाद निर्ममता के साथ मौत के घाट उतार दिया था। यह कैसी दोहरी मानसिकता है कि स्टालिन, टीपू, तैमूर, औरंगजेब आदि नाम स्वयंभू सैकुलरिस्टों के लिए पसंदीदा नाम रखने के अधिकार उदारवाद और आधुनिकतावाद की श्रेणी में आते हैं, तो गोडसे का नाम लेने वालों की उपस्थिति उन्हें स्वीकार तक नहीं है। क्या यह वास्तविक ‘असहिष्णुता’ का परिचायक नहीं है? 

वर्ष 1938 में जन्मे राहुल बजाज, गांधी जी के सहयोगी रहे दिवंगत जमनालाल बजाज के पुत्र हैं। कहा यह भी जाता है कि गांधी जी ने उन्हें अपनी पांचवीं संतान के रूप  में गोद ले लिया था। इस पृष्ठभूमि में राहुल बजाज ने मुंबई के कार्यक्रम में अंग्रेजी ‘‘लिचिंग’’ शब्द का प्रयोग करते हुए देश में ‘भय का वातावरण’ होने की भी बात कही थी। अब डर का माहौल किसे कहते हैं, वह उन मराठी चितपावन ब्राह्मणों से पूछना चाहिए, जिनके अपनों ने 30 जनवरी 1948 को गोडसे द्वारा गांधी जी की निर्मम हत्या के बाद स्वघोषित ‘गांधीवादियों की भीड़’ के नरसंहार को झेला था। उस समय सैंकड़ों चितपावन ब्राह्मणों को चिन्हित करके केवल इसलिए मौत के घाट उतारा गया था क्योंकि गोडसे भी उसी वर्ग से था। भय के बारे में उन सिख परिवारों से भी पूछना चाहिए जिन्होंने नवम्बर 1984 में कांग्रेस समर्थकों की भीड़ का सामना किया था। 

मुझे वर्ष 2002 का गोधरा कांड भी स्मरण है, जिसमें समुदाय विशेष की भीड़ ने 59 निरपराध कारसेवकों को ट्रेन में जीवित जला दिया था। उनका कसूर केवल इतना था कि वे सभी अयोध्या से रामलला के दर्शन कर भजन-कीर्तन करते हुए लौट रहे थे। इस जघन्य कृत्य के बाद गुजरात में भड़की दुर्भाग्यपूर्ण हिंसा को लेकर उद्योगपति राहुल बजाज, जमशेद गोदरेज आदि ने प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया था। 

वर्ष 2003 में दिल्ली स्थित सी.आई.आई. के ‘नरेंद्र मोदी से मिलिए’ कार्यक्रम में इन्हीं उद्योगपतियों ने दंगे को ‘आत्मा को झकझोरने वाला’ बताते हुए सीधे-सीधे मोदी को कटघरे में खड़ा कर दिया था। इस वर्ग की धूर्तता या पाखंड देखिए कि इन्हीं लोगों की आत्मा तब नहीं हिली थी, जब 1980-90 के दशक में श्रीनगर के अखबारों में आतंकी संगठनों के जेहादी विज्ञापनों और स्थानीय लोगों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन के कारण पांच लाख कश्मीरी पंडितों को घाटी छोडऩे पर विवश होना पड़ा था। 

सच तो यह है कि देश का एक वर्ग (ऐतिहासिक रूप से अभिजात्य समूह सहित) पूर्वाग्रह से ग्रसित है, इसलिए किसी भी छोटे-बड़े घटनाक्रम पर इस जमात की प्रतिक्रिया संतुलित न होकर केवल और केवल अतिरंजित होती है। प्रति एक लाख जनसंख्या में होने वाले अपराध के मामले में भारत की स्थिति कई देशों से अच्छी है, फिर भी इस भूखंड पर विश्व की दूसरी सर्वाधिक 137 करोड़ लोगों की आबादी बसने के कारण यहां अपराध का आंकड़ा भयावह बन जाता है। 

अक्सर अपराध और अपराधियों का सांप्रदायीकरण भी किया जाने लगा है
यह ठीक है कि किसी भी सभ्य समाज में अपराधी या अपराध की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। किन्तु क्या यह सत्य नहीं कि विश्व में कोई भी देश स्वयं को अपराधमुक्त या अपराधविहीन होने का दावा नहीं कर सकता है? भारत में अपराध के शिकार बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ-साथ अल्पसंख्यक वर्ग-मुस्लिम, सिख और ईसाई आदि के लोग भी होते हैं परंतु राजनीतिक पूर्वाग्रह के कारण और छद्म-सैकुलरवाद के नाम पर अक्सर अपराध और अपराधियों का सांप्रदायीकरण भी किया जाने लगा है, जिससे न केवल देश की सहिष्णु छवि शेष विश्व में धूमिल होती है, बल्कि अलगाववादी शक्तियों को भी बल मिलने लगता है।-बलबीर पुंज

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