भारत की स्वतंत्रता में मदरसों का योगदान

Edited By Updated: 26 Aug, 2022 06:30 AM

contribution of madrasas in india s independence

जिन दिनों हिन्दुस्तान गुलामी की जंजीरों में कैद था और उस पर गैरों ने पंजा गाड़ दिया था, तकाजा था कि मुल्क को गुलामी से छुटकारा दिलाकर आजाद कराया जाए। इसी जज्बे के तहत हर धर्म

जिन दिनों हिन्दुस्तान गुलामी की जंजीरों में कैद था और उस पर गैरों ने पंजा गाड़ दिया था, तकाजा था कि मुल्क को गुलामी से छुटकारा दिलाकर आजाद कराया जाए। इसी जज्बे के तहत हर धर्म के लोगों ने कुर्बानियां पेश कीं। आजादी की रूह फूंकने के लिए मुल्क के हर हलके के उलेमा, जो सैंकड़ों मदरसे चला रहे थे, आजादी की तहरीक का मरकज थे, जिनकी कुर्बानियों से तारीख के पन्ने भरे पड़े हैं। 

उल्लेखनीय है कि हजरत शेखुल हिन्द मौलाना महमूदुल हसन की रहनुमाई में चल रहा दारूल उलूम देवबन्द तहरीके आजादी का सबसे बड़ा और मजबूत किला था। इसी तरह हर इलाके के उलेमाओं ने तहरीके आजादी में इजतमाई कुव्वत के साथ शरीक होने के लिए एक मजहबी मुहाज कायम किया, जो जमीयत उलेमा ए हिन्द के नाम से तारीखे-आजादी का एक जली उनवान है। चुनांचे जमीयत उलमा-ए-हिन्द ने जंगे आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और उस की रहनुमाई में लाखों मुसलमानों ने जंगे आजादी में शिरकत की। आजादी का बिगुल बजाने की वजह से अंग्रेजों ने सन् 1861 ईस्वी में 3 लाख से ज्यादा कुरान पाक जलाए, उसके बाद मौलानाओं को शहीद करने का अमल शुरू हुआ। 

अंग्रेज इतिहासकार एडवर्ड टामसन ने लिखा है, ‘‘आजादी की रूह फूंकने वाले 80,000 से ज्यादा मौलानाओं (उलेमा) को 1864 से 1867 तक फांसी पर लटकाया गया, दिल्ली के चांदनी चौक से खैबर तक ऐसा कोई पेड़ नहीं था, जिस पर किसी मौलाना की गर्दन न लटकी हुई हो। लाहौर की शाही मस्जिद, जिसके प्रांगण में अंग्रेजों ने फांसी का फंदा बनाया था, उस पर एक दिन में 80-80 उलेमाओं को फांसी दी जाती थी और लाहौर के दरिया रावी में 80-80 उलेमाओं को बोरियों में बंद करके फैंक दिया जाता और उन पर गोलियां चलाई जातीं। 

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा है कि हिन्दुस्तान की आजादी के लिए यहां के मौलानाओं ने जो काईदाना और सरफरोशाना जद्दोजहद (संघर्ष) की है, उसकी मिसाल नहीं मिलती। यह फन हिन्दुस्तान के मदरसों के उलेमाओं को ही हासिल है, कि उन्होंने आगे बढ़ कर आजादी की लड़ाई का आगाज किया, जिसमें शाह अब्दुल अजीज साहिब देहलवी, सय्यद अहमद शहीद, मौलाना हबीबुल्ला लुधियानवी, मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महल्ली, मौलाना फजले हक खैराबादी, मुफ्ती किफायतुल्ला, शेखुल हिन्द हजरत मौलाना महमूदुल हसन, मौलाना उबैदुल्ला सिन्धी, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना शौकत अली जौहर, मौलाना कासिम नानोतवी, मौलाना हुसैन अहमद मदनी,  मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना जाफर थानेसरी, मौलाना अजीज गुल, मौलाना रशीद अहमद गंगोही जैसी हस्तियां शामिल हैं। 

मुल्क के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने दारूल देवबन्द के दौरे के मौके पर शहीदे वतन उलेमाओं को खिराजे अकीदत पेश करते हुए कहा था कि आजादी की लड़ाई के मौके पर मदरसों के जो सिपाही मैदान में उतरते थे, वे आजादी की लड़ाई के लिए बड़ी कुव्वत साबित होते थे, हमें उस तारीखी हकीकत को हमेशा याद रखना चाहिए।

आज दुनिया में जितने बड़े-बड़े सूफी, उलेमा, बुजुर्गाने दीन और रूहानी पेशवा हुए, वे इन्हीं मदरसों की देन हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तान के गेसू-ए-बरहम को हजारों वर्ष तक संवारा, मुल्क की हिफाजत और आजादी के लिए लाखों गर्दनों ने फांसी के फंदे को गले लगाया, कैदोबन्द की तकलीफें बर्दाश्त कीं और मुल्क की आजादी के लिए मालटा के कैदखानों, जहां समुद्री हवाएं चलतीं, तूफान के झोंके खून को खुश्क कर देने जैसी तकलीफ को वतन की मुहब्बत में गवारा किया, क्योंकि वह हिन्दुस्तान को अंग्रेजों के चंगुल से निकालने का निश्चय कर चुके थे। 

इसलिए हमें अपने बुजुर्गों की कुर्बानियों को सामने रखकर अपने मुल्क की अजमत और उसकी हिफाजत का सबक दोहराना है। यही हमारे मजहब का सबक और इसका मार्गदर्शन है और यही मदरसों की शिक्षा का हासिल और निचोड़ भी। जिसे फिजूल समझ कर बुझा दिया तुमने! वही चिराग जलाओ तो रौशनी होगी!!-मौलाना कबीरुद्दीन फारान मजाहिरी प्रधानाचार्य मदरसा मिस्सरवाला (हि.प्र.)
 

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