आम चुनाव में दल-बदलू नेताओं का बोलबाला

Edited By ,Updated: 30 Apr, 2019 03:57 AM

dalit leaders dominate the general elections

भारत की सबसे बड़ी नौटंकी अब चुनाव के अंतिम 3 चरणों में पहुंच गई है। इन चुनावों में 90 करोड़ मतदाता अपने मत का प्रयोग करेंगे जिनमें 18-19 वर्ष के डेढ़ करोड़ नए मतदाता भी हैं। ये मतदाता लोकसभा के 543 सदस्यों के भाग्य का फैसला करेंगे। चुनावी मैदान में...

भारत की सबसे बड़ी नौटंकी अब चुनाव के अंतिम 3 चरणों में पहुंच गई है। इन चुनावों में 90 करोड़ मतदाता अपने मत का प्रयोग करेंगे जिनमें 18-19 वर्ष के डेढ़ करोड़ नए मतदाता भी हैं। ये मतदाता लोकसभा के 543 सदस्यों के भाग्य का फैसला करेंगे। चुनावी मैदान में बड़े नेता, छोटे नेता, छोटे-मोटे जनसेवक खड़े हैं और वे ढेर सारे वायदे कर रहे हैं तथा सभी भारत की राजगद्दी को प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। 

इस बीच विभिन्न टिकटार्थी आशा कर रहे हैं कि उन्हें अपने-अपने दल से प्रत्याशी बनाया जाएगा। जिन्हें टिकट नहीं मिल पाया वे अन्य दलों में जा रहे हैं और अपनी निष्ठा बदल रहे हैं। इसको देखकर लगता है कि आज राजनीति एक घूमती कुर्सी बन गई है और इस क्रम में यह पता नहीं चल पा रहा है कि कौन किस दल में आया और कौन किस दल से गया। कौन संबंध स्थापित कर रहा है और कौन संबंध विच्छेद कर रहा है। कौन किस दरवाजे से घुस रहा है और क्या सौदा कर रहा है। कौन किसको धोखा दे रहा है और इन सबके बीच राजनीतिक दल चमत्कारी नेताओं की तलाश में हैं तथा इसके लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। इसमें जाति, धर्म, ङ्क्षलग, आयु कोई बाधा नहीं है, सिर्फ इस बात पर ध्यान दिया जा रहा है कि वे सत्ता दिला सकें। 

50 नेताओं ने बदले दल
राजनीतिक पार्टियां उपयोगी दल-बदलू नेताओं की तलाश में हैं और ऐसा लगता है कि चुनावी मैदान शेयर बाजार बन गया है जहां पर पैराशूट नेताओं और चमचों की बोली लग रही है। गत कुछ दिनों में 50 नेताओं ने दल-बदल किया है जिनमें से 9 वर्तमान सांसद और 39 विधायक हैं। इनमें से 3 सांसद और 10 विधायक भाजपा में आए हैं तो 3 सांसद और 2 विधायक कांग्रेस में गए हैं। कांग्रेस से 2 सांसदों और 21 विधायकों  ने दल-बदल किया तो भाजपा से 5  सांसदों और 12 विधायकों ने दल-बदल किया। जिन 22 विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी उनमें से 8 भाजपा में शामिल हुए। बसपा और सपा के एक-एक सांसद कांग्रेस में शामिल हुए तो सपा व बसपा के एक-एक सांसद और बसपा के 4 विधायक कांग्रेस में शामिल हुए और सबका कहना है कि उनकी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और उन्हें आशा है कि उन्हें नई पार्टी में टिकट मिलेगा तथा नई पार्टी उन्हें टिकट दे भी रही है। 

उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए 80 सांसद चुनकर आते हैं। राज्य में सपा, रालोद और कांग्रेस आदि विपक्षी दलों के 28 नेता हाल ही में भाजपा में शामिल हुए हैं। भाजपा में शामिल हुए नेताओं में से 15 नेता बसपा के हैं जिनमें से 11 ऐसे हैं जिन्होंने राज्य में तथा आम चुनाव में पार्टी के प्रतीक चिन्ह पर चुनाव लड़ा था। बिहार में भाजपा के पूर्व नेता और अब कांग्रेसी नेता शत्रुघ्न सिन्हा केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के मुकाबले में पटना से खड़े हुए हैं। 

इसी तरह पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद, 2 अन्य दलित सांसद भाजपा से अलग हुए और वे भी चुनावी मैदान में हैं। आंध्र प्रदेश में तेदेपा के दो सांसदों और एक विधायक ने दल-बदल कर जगनमोहन की वाई.एस.आर. की शरण ली तो एक अन्य राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हुआ। सबसे बड़ी चौंकाने वाली खबर यह है कि सोनिया के सलाहकार और कांग्रेस सचिव टॉम वेडिकम भाजपा में शामिल हुए। इसी तरह राकांपा के पूर्व मंत्री विखे पाटिल भी भाजपा में शामिल हुए। पश्चिम बंगाल में ममता की तृणमूल के 2 सांसद और एक विधायक तो पटनायक के बीजद के एक सांसद भी भाजपा में शामिल हुए। हरियाणा में एक कांग्रेसी बागी नेता और इंडियन नैशनल लोकदल का एक नेता भाजपा में शामिल हुआ। 

जीतने की क्षमता है महत्वपूर्ण
आज के वातावरण में चुनाव पार्टियों और उसके नेताओं द्वारा जीता जाता है न कि व्यक्तियों द्वारा। इसलिए प्रत्याशी का मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि उसकी जाति, संप्रदाय, वर्ग, आपराधिक पृष्ठभूमि सब सही हैं या नहीं। जीतने की क्षमता सबसे महत्वपूर्ण है न कि स्वीकार्यता। सभी ताज चाहते हैं या किंगमेकर बनना चाहते हैं। जीतने की क्षमता जमीनी स्तर की राजनीति को स्वीकार करने का अप्रत्यक्ष तरीका भी है अर्थात पार्टियों अपने आदर्शों और सिद्धांतों के आधार पर नहीं जीततीं अपितु अपना ब्रांड नाम ऐसे लोगों के साथ जोड़ती हैं जिनकी जीतने की संभावना होती है। किन्तु चिंता की बात यह है कि गरीबी, बेरोजगारी, वित्तीय संकट, कृषि संकट जैसे ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे इन गठबंधनों के चक्कर में पीछे छूटते जा रहे हैं। कोई भी पार्टी अपनी योजना या दृष्टिकोण को सामने न ही रख रही है और न ही वे चरित्र, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी आदि के आधार पर सही प्रत्याशियों का चयन कर रही हैं। 

भाजपा ने विक्रम सेठ के सुटेबल ब्वॉय से एक कविता उद्धृत की है...फिर एक बार चौकीदार, मोदी सरकार और नैट पर नमो स्पीक के नाम से बहुत सारी पोस्ट डाली हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी गुनगुना रहे हैं कि अब होगा न्याय तो उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा और अखिलेश की सपा का गठबंधन गुल्ली-डंडा खेल रहा है। सब जनता की धुलाई के लिए अपनी नीचता को प्रकट कर रहे हैं। चुनावों के परिणामों की भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी होगा किन्तु सत्तारूढ़ भाजपा के मोदी राष्ट्रवाद के घोड़े पर सवार हैं और उन्हें जीत की आशा है तथा वह समझते हैं कि उनके प्रतिद्वंद्वी अपने क्षेत्रीय सहयोगियों के पिछलग्गू बन जाएंगे। भाजपा के लिए केवल नमो ही नहीं अपितु राज्यों में भाजपा के सहयोगी जद (यू), अकाली दल, शिवसेना, लोजपा, अन्नाद्रमुक और अन्य छोटी पार्टियों का कार्य निष्पादन भी महत्वपूर्ण है। यही स्थिति कांग्रेस की है। वह आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में कैसा प्रदर्शन करती है उसी के आधार पर उसके भविष्य का निर्णय होगा। 

पी.एम. पद के इच्छुक
ममता, माया, नायडू और पवार ने अपनी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा या किंगमेकर बनने की चाह प्रकट कर दी है किन्तु यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उनका प्रदर्शन कैसा रहता है। यदि गुजराल और गौड़ा 27 और 44 सांसदों के दम पर प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो फिर वे क्यों नहीं? निष्ठा बदलने के साथ मतदाताओं के समक्ष केवल कम बुरे प्रत्याशी के चयन के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। जीवन के अन्य क्षेत्रों जैसे शिक्षा, रोजगार आदि में सही कार्य के लिए सही व्यक्ति के चयन के समान यहां विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। इसमें भी कोई आपत्ति नहीं है किन्तु जब इन दलों के बीच नए समीकरण बनते हैं तो उनकी विचारधारा और उद्देश्यों में बहुत अंतर होता है और इनका हर नेता अपने लिए, अपने परिवार के लिए और अपनी पार्टी के लिए सत्ता का उपयोग करना चाहता है।

फिर क्या हम इसे राजनीतिक कलियुग कहकर नजरअंदाज कर दें? बिल्कुल नहीं। यह सच है कि दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठेगा इसका निर्णय संख्या करेगी किन्तु साथ ही सभी पाॢटयों को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनॢवचार करना चाहिए और निष्ठा बदलने वाले नेताओं से दूर रहना चाहिए तथा नकारात्मक चुनाव प्रचार से बचना चाहिए। कुल मिलाकर राजनीति में 6 सप्ताह का समय बहुत लंबा होता है और 42 दिन तक चुनाव प्रक्रिया चलना भी बहुत लंबा समय है। इस बीच झूला किसी भी दिशा में झुक सकता है। स्पष्ट है कि अभी चुनाव परिणामों के बारे में कोई कयास नहीं लगाए जा सकते हैं। यदि हमारे राजनेता वास्तव में देशभक्त हैं जिसको वे बार-बार कहते हैं तो उन्हें इस पुरानी कहावत को ध्यान में रखना होगा कि किसी देश को एक सस्ते राजनेता से महंगा कुछ भी नहीं पड़ता है। जय हो।-पूनम आई. कौशिश 
 

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