एक राजनेता से ज्यादा संवेदनशील इंसान थे दीनदयाल उपाध्याय

Edited By ,Updated: 25 Sep, 2021 05:45 AM

deendayal upadhyay was a more sensitive person than a politician

राजनीति में विचारों के लिए सिकुड़ती जगह के बीच पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ज्योतिपुंज की तरह सामने आता है। वह सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, वे एक पत्रकार, लेखक, संगठनकत्र्ता, वैचारिक चेतना से लैस एक सजग इतिहासकार, अर्थशास्त्री और भाषाविद् भी थे। उनके...

राजनीति में विचारों के लिए सिकुड़ती जगह के बीच पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ज्योतिपुंज की तरह सामने आता है। वह सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, वे एक पत्रकार, लेखक, संगठनकत्र्ता, वैचारिक चेतना से लैस एक सजग इतिहासकार, अर्थशास्त्री और भाषाविद् भी थे। उनके चिंतन, मनन और अनुशीलन ने देश को ‘एकात्म मानवदर्शन’ जैसा एक नवीन भारतीय विचार दिया, जिससे उन्होंने भारत से भारत का परिचय कराने की कोशिश की। विदेशी विचारों से आक्रांत भारतीय राजनीति को उसकी माटी से महक से जुड़ा हुआ विचार देकर उन्होंने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया। 

अपनी प्रखर बौद्धिक चेतना, समर्पण और स्वाध्याय से वे भारतीय जनसंघ को एक वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफल रहे। वह अनन्य देशभक्त और भारतीय जनों को दुखों से मुक्त कराने की चेतना से लैस थे, इसीलिए वह कहते थे, ‘‘प्रत्येक भारतवासी हमारे रक्त और मांस का हिस्सा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक हम प्रत्येक को यह आभास न करा दें कि वह भारत माता की संतान है। हम इस धरती मां को सुजला, सुफला, अर्थात फल-फूल, धन-धान्य से परिपूर्ण बनाकर ही रहेंगे।’’ उनकी चिंता के केंद्र में अंतिम व्यक्ति है, शायद इसीलिए वे अंत्योदय के विचार को कार्यरूप देने की चेष्टा करते नजर आए। 

वह भारतीय समाज जीवन के सभी पक्षों का विचार करते हुए देश की कृषि और अर्थव्यवस्था पर सजग दृष्टि रखने वाले राजनेता की तरह सामने आए। भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनकी बारीक नजर थी और स्वावलंबन के पक्ष में थे। राजनीतिक दलों के लिए दर्शन और वैचारिक प्रशिक्षण पर उनका जोर था। वह मानते थे कि राजनीतिक दल किसी कंपनी की तरह नहीं बल्कि एक वैचारिक प्रकल्प की तरह चलने चाहिएं। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी घोषणापत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझना चाहिए और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए। उनका यह कथन बताता है कि वे राजनीति को विचारों के साथ जोडऩा चाहते थे। उनके प्रयासों का ही प्रतिफल है कि भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) को उन्होंने वैचारिक प्रशिक्षणों से जोड़कर एक विशाल संगठन बना दिया। 

कार्यकत्र्ताओं और आम जन के वैचारिक प्रबोधन के लिए उन्होंने पांच जन्य, स्वदेश और राष्ट्रधर्म जैसे प्रकाशनों का प्रारंभ किया। भारतीय विचारों के आधार पर एक ऐसा दल खड़ा किया जो उनके सपनों में रंग भरने के लिए तेजी से आगे बढ़ा। वह अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति भी बहुत उदार थे। उनके लिए राष्ट्र प्रथम था। गैर-कांग्रेस की अवधारणा को उन्होंने डा. राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर साकार किया और देश में कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। भारत-पाक महासंघ बने, इस अवधारणा को भी उन्होंने डा. लोहिया के साथ मिलकर एक नया आकाश दिया। दीनदयाल जी की यह ध्रुव मान्यता थी कि राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते देश के हित नजरअंदाज नहीं किए जा सकते। वह जनांदोलनों के पीछे दर्द को समझते थे और समस्याओं के समाधान के लिए सत्ता की संवेदनशीलता के पक्षधर थे। जनसंघ के प्रति कम्युनिस्टों का दुराग्रह बहुत उजागर रहा है, किंतु दीनदयाल जी उनके बारे में बहुत अलग राय रखते थे। 

जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में 28 दिसम्बर, 1967 को उन्होंने कहा, ‘‘हमें उन लोगों से भी सावधान रहना चाहिए जो प्रत्येक जनांदोलन के पीछे कम्युनिस्टों का हाथ देखते हैं और उसे दबाने की सलाह देते हैं। जनांदोलन एक बदलती हुई व्यवस्था के युग में स्वाभाविक और आवश्यक है। वास्तव में वे समाज के जागृति के साधन और उसके द्योतक हैं। हां, यह आवश्यक है कि ऐसे आंदोलन दुस्साहसपूर्ण और हिंसात्मक न हों। प्रत्युत वे हमारी कर्मचेतना को संगठित कर एक भावनात्मक क्रांति का माध्यम बनें। एतदर्थ हमें उनके साथ चलना होगा, उनका नेतृत्व करना होगा।’’ 

इस प्रकार हम देखते हैं कि दीनदयाल जी का पूरा लेखन और जीवन एक राजनेता की बेहतर समझ, उसके भारत बोध को प्रकट करता है। वह सही मायने में एक राजनेता से ज्यादा संवेदनशील इंसान थे। उनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुई थी। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का मंत्र उनके जीवन में साकार होता नजर आता है। वह अपनी उच्च बौद्धिक चेतना के नाते भारत के सामान्य जनों से लेकर बौद्धिक वर्गों में भी आदर से देखे जाते हैं। 

एक लेखक के नाते आप दीनदयाल जी को पढ़ें तो अपने विरोधियों के प्रति उनमें कटुता नहीं दिखती। उनकी आलोचना में भी एक संस्कार है, सुझाव है और देशहित का भाव प्रबल है। यह जरूरी है कि उनके विचारों का अवगाहन किया जाए, उस पर मंथन किया जाए कि वह कैसा भारत बनाना चाहते थे, किस तरह समाज को दुखों से मुक्त करना चाहते थे और कैसी अर्थनीति चाहते थे? दीनदयाल जी को आयु बहुत कम मिली। जब वह देश के पटल पर अपने विचारों और कार्यों को लेकर सर्वश्रेष्ठ देने की ओर थे, तभी उनकी हुई हत्या ने इस विचारयात्रा का प्रवाह रोक दिया। उनकी जयंती पर उन्हें स्मरण करते हुए हम अपने कामों और निर्णयों में अंत्योदय का विचार रखें यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।-प्रो. संजय द्विवेदी
 

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