समाज में ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की जिम्मेदारी क्या केवल एक पक्ष की

Edited By Updated: 06 Oct, 2022 05:12 AM

is the responsibility of  ganga jamuni tehzeeb  in the society of only one side

बुधवार (5 अक्तूबर) को देशभर में विजयदशमी का पर्व धूमधाम के साथ मनाया गया। हमारे समाज में आज भी अनगिनत ‘रावणों’ की भरमार है, जिन्हें चिन्हित और उनके एजैंडे को ध्वस्त किए जाने

बुधवार (5 अक्तूबर) को देशभर में विजयदशमी का पर्व धूमधाम के साथ मनाया गया। हमारे समाज में आज भी अनगिनत ‘रावणों’ की भरमार है, जिन्हें चिन्हित और उनके एजैंडे को ध्वस्त किए जाने की आवश्यकता है। वाम-उदारवादी समूह ऐसा ही एक ‘रावण’ है, जो अपने ‘सामाजिक समरसता’ को न केवल प्रभावित करता है, अपितु देश को पुन:विभाजित करने को लालायित विषैली शक्तियों की ढाल भी बनकर खड़ा हो जाता है। हालिया गरबा प्रकरण-इसका ही एक अन्य प्रमाण है। 

गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में जो मुस्लिम युवक अपनी पहचान छिपाकर गरबा में पहुंचे थे, क्या वह आज के ‘रावणों’ में से एक नहीं? भनक लगते ही ऐसे युवकों की स्थानीय ङ्क्षहदू संगठन के लोगों ने पिटाई कर दी। यह प्रकरण जैसे ही मीडिया की सुर्खियों में आया, वाम-उदारवादियों के साथ मुस्लिम समाज का एक वर्ग और स्वघोषित सैकुलरवादियों ने इसे ‘सामाजिक समरसता पर आघात’, तो ‘संविधान पर कुठाराघात’ बताने लगा। क्या ऐसा है? 

विगत माह कर्नाटक में क्या हुआ था? यहां बेंगलुरू स्थित ईदगाह में प्रशासन द्वारा न्यायिक हस्तक्षेप के पश्चात गणेश चतुर्थी पूजन की स्वीकृति दी गई थी, जिसका मुस्लिम पक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय में यह कहकर विरोध किया कि यदि ऐसा हुआ, तो क्षेत्र में ‘सांप्रदायिक तनाव बढ़’ सकता है। इसके बाद अदालत ने इस पर रोक लगा दी, जिसका मुस्लिम पक्षकारों के साथ वाम-उदारवादियों ने स्वागत किया। विडंबना देखिए कि ‘संभावित सांप्रदायिक हिंसा की आशंका’ पर खाली पड़े ईदगाह के मैदान पर गणेश उत्सव का विरोध करने वाले, नवरात्रों में ङ्क्षहदुओं के गरबा कार्यक्रम में मुस्लिमों के प्रवेश पर आपत्ति जताने वालों को ‘इस्लामोफोबिया’ बता रहे हैं। क्या ईदगाह मामले में मुस्लिम संगठनों की ‘असहिष्णुता’ को वाम-उदारवादियों ने ‘हिंदूफोबिया’ कहा? क्या समाज में ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की जिम्मेदारी केवल एक पक्ष की है? 

इसी पाखंडी कुनबा ने गत वर्ष दिसंबर में हरियाणा स्थित गुरुग्राम में मुसलमानों को स्थानीय गुरुद्वारा सिंह सभा प्रबंधन समिति द्वारा अपने परिसर में नमाज अदा करने के प्रस्ताव को ‘भाईचारे’ का प्रतीक बताया था, तो इसी वर्ष रामनवमी-हनुमान जयंती के दौरान निकाली गई ङ्क्षहदू शोभायात्राओं पर हुए मुस्लिमों के पथराव-हिंसा का यह कहकर प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन कर दिया कि भजन-गीत-जयकारों से मुस्लिम भड़क गए थे। क्या गरबा में मुस्लिमों के प्रवेश पर आपत्ति ङ्क्षहदुओं की आहत भावना से संबंधित नहीं? 

विरोधाभास देखिए कि जो वाम-उदारवादी मुस्लिम युवकों के गरबा खेलने को ‘विविधता’ और इसका विरोध करने वाले को ‘इस्लामोफोबिया’ से ग्रस्त बता रहे हैं, वही समूह गत माह केरल में हिंदुओं के अन्य पर्व ओणम पर हिजाब पहनी मुस्लिम लड़कियों के नृत्य पर भड़के ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ (ए.आई.एम.पी.एल.बी.) पर चुप क्यों रहा? 

इस संगठन की सदस्य डा. अस्मा जेहरा तैयबा ने ट्वीट करते हुए लिखा था, ‘‘हिजाब पहन कर नाचने से इसका उद्देश्य समाप्त हो जाता है। यह केवल पोशाक नहीं, एक अवधारणा और विचारधारा है, जो महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करती है।’’ क्या वाम-उदारवादियों ने मुखर होकर ओणम मामले में तैयबा के विचारों का विरोध किया? प्रश्न है कि जो इस्लामी संस्था गरबा में मुस्लिम युवकों के पहुंचने को ‘मौन-स्वीकृति’ देते हैं, वे ओणम में मुस्लिम युवतियों के शामिल होने पर एकाएक क्यों भड़क गए? 

गरबा, हिंदुओं का विशुद्ध सांस्कृतिक और पारंपरिक कार्यक्रम है। इसके माध्यम से श्रद्धालु (अधिकांश महिलाएं) आराध्य देवी मां दुर्गा को प्रसन्न करते हैं। ‘गरबा’ का वास्तविक अर्थ-गर्भ दीप है। इसे स्त्री के गर्भ की सृजन शक्ति का प्रतीक माना गया है। इसी शक्ति की दुर्गा मां के स्वरूप में पूजा की जाती है। अब जहां भारतीय सनातन संस्कृति अनादिकाल से बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता का परिचायक है, तो एकेश्वरवादी इस्लामी दर्शन इन जीवनमूल्यों और मूर्तिपूजा को ‘हराम’ बताता है। इसी ङ्क्षचतन के कारण मुस्लिम समाज का बड़ा वर्ग ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम्म’ आदि को ‘कुफ्र’ और ‘इस्लाम-विरोधी’ बताकर इससे दूरी बनाता है। फिर क्या कारण है कि मुस्लिम युवक अपनी पहचान प्रच्छन्न करके किस उद्देश्य से माता दुर्गा को आहूत गरबा में पहुंचने का प्रयास करता है? क्या इसका उत्तर ‘लव-जेहाद’ में नहीं छिपा है? 

‘लव-जेहाद’ न तो अब कोई छिपा रहस्य है और न ही यह भाजपा-आर.एस.एस. का तथाकथित ‘प्रोपेगेंडा’। यह एक कटु वास्तविकता है, जिसपर कैथोलिक बिशप कॉफ्रैंस जैसे कई चर्च संगठन वर्षों से अपनी आशंका व्यक्त कर रहे हैं। नि:संदेह, दो व्यस्क प्रेमियों के बीच मजहब नहीं आना चाहिए। परंतु जब तथाकथित ‘प्रेम’ से एक व्यस्क मजहबी कारणों से दूसरे को अपने ‘जाल’ में फंसाए और अपनी पहचान छिपाने हेतु तिलक, कलावा और हिंदू नामों आदि का उपयोग करें-तो इसका विरोध तो होगा। 

हिंदू और ईसाई समाज की ‘लव-जेहाद’ के वीभत्स मजहबी उद्देश्य के प्रति आशंका निरर्थक क्यों नहीं है?-इसका प्रमाण मध्यप्रदेश में इंदौर के हालिया घटनाक्रम में देखने को मिलता है। यहां चार मुस्लिमों-सैय्यद, अफजल, अरबाज और शाहिद पर एक 19 वर्षीय दलित युवती ने सामूहिक बलात्कार का आरोप लगाया है। 

नौकरी दिलाने के नाम पर पीड़िता से आरोपियों का परिचय हुआ था। बकौल पीड़िता, धोखे से बेहोशी की दवा खिलाने के बाद एक आरोपी उसे एकांत घर में ले गया, जहां उसके साथ चारों ने बलात्कार किया। पीड़िता बताती है कि जब उसने बचने हेतु स्वयं के गर्भवती होने की दुहाई दी, तब अफजल ने कहा- ‘‘हमारे मजहब में सब चलता है। ङ्क्षहदू लड़की से सैक्स करने पर हमें जन्नत नसीब होती है।’’ क्या यह सत्य नहीं कि इसी मानसिकता के साथ ‘काफिरों’ को ‘लव-जेहाद’ के माध्यम से शिकार बनाया जाता है? क्या गरबा में ‘बुरी नीयत’ के साथ पहुंचने वाले मुस्लिमों को इससे जोड़कर नहीं देखना चाहिए? -बलबीर पुंज

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