‘नोटा’ का प्रयोग मुख्यत: भाजपा से नाराज लोगों ने किया

Edited By Punjab Kesari,Updated: 22 Dec, 2017 04:00 AM

nota was mainly used by angry people of bjp

अभी हाल ही में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के जो परिणाम सामने आए, उनमें देश में भविष्य की राजनीति के संकेत निहित हैं। जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के मजबूत जननायक के रूप में पुनस्र्थापित हुए हैं, वहीं कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष...

अभी हाल ही में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के जो परिणाम सामने आए, उनमें देश में भविष्य की राजनीति के संकेत निहित हैं। जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के मजबूत जननायक के रूप में पुनस्र्थापित हुए हैं, वहीं कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी ने स्वयं को सशक्त विपक्षी नेता के तौर पर प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। 

परिणामों से स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बरकरार है। इस चुनाव में भाजपा की सीटें भले ही घटी हों किन्तु उसका मत प्रतिशत 2012 की तुलना में सवा प्रतिशत बढ़कर 49.1 प्रतिशत पर जा पहुंचा है। गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा का 22 वर्षों में पहली बार 100 के नीचे पहुंचना और लगभग साढ़े 5 लाख मतदाताओं द्वारा ‘नोटा’ अर्थात ‘‘इनमें से कोई नहीं’’ बटन का उपयोग करना-क्या एक-दूसरे से संबंधित है? ऐसी कई सीटें हैं, जहां ‘‘नोटा’’ का उपयोग अधिक हुआ और उन पर भाजपा प्रत्याशी केवल कुछ मतों के अंतर से पराजित हो गए। ‘‘नोटा’’ का उपयोग करने वाले कौन थे? एक आकलन के अनुसार, ‘‘नोटा’’ का उपयोग अधिकांश उन लोगों ने किया जो भाजपा से असंतुष्ट थे और हाल के घटनाक्रमों से नाराज थे। दूसरा वर्ग वह था जो जी.एस.टी., पाटीदार आंदोलन, दलित आंदोलन और पिछड़ा आंदोलन से प्रभावित रहा। 

सत्तारूढ़ दल से नाराजगी, जातीय-मजहबी राजनीति और ‘प्रपंच’ का लाभ विरोधियों को पूरा क्यों नहीं मिला? इसका एकमात्र कारण यह है कि गुजरात में भाजपा से असंतुष्ट लोगों ने सत्ताधारी दल का बहिष्कार तो किया किन्तु अपनी मूल विचारधारा के बाहर न जाकर और विश्वसनीय मजबूत विकल्प के अभाव में अन्य किसी दल को मत न देकर ‘‘नोटा’’ का चुनाव करना अधिक पसंद किया। भाजपा को इस पर मंथन करना चाहिए। गुजरात में कांग्रेस का राजनीतिक वनवास जारी है किन्तु उसके प्रदर्शन में सुधार हुआ है। कांग्रेस नेतृत्व इसे अपनी ‘‘नैतिक विजय’’ के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ‘‘जालीदार’’ टोपी में नजर नहीं आए। उन्होंने 85 दिनों में प्रदेश के 27 मंदिरों के दौरे किए-जिनमें सोमनाथ, अक्षरधाम तथा द्वारका मंदिर भी शामिल रहे। 

वर्ष 2014 से सिकुड़ते राजनीतिक जनाधार और आत्ममंथन के बाद क्या कांग्रेस अपने मूल चिंतन (गांधी जी की आस्थावान विचारधारा) की ओर लौट रही है? गांधी जी के विचार और उनका दर्शन कांग्रेस के मूल बौद्धिक दर्शनशास्त्र का आधार है, जिसमें सनातनी हिन्दू परंपराओं का सम्मान, गौरक्षा, राष्ट्रवाद, एकता, अखंडता, जातिभेद-क्षेत्रवाद मिटाने का संकल्प और चर्च द्वारा मतांतरण का विरोध आदि सम्मिलित हैं। 30 जनवरी 1948 को बापू की निर्मम हत्या के बाद कांग्रेस ने गांधी जी के इसी चिंतन को तिलांजलि देना प्रारंभ कर दिया।

वर्ष 1969 में व्यक्तिवाद के कारण कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई। उस समय श्रीमती इंदिरा ने वामपंथियों की राजनीतिक बैसाखी के सहारे आगे बढऩा शुरू किया। यूं तो गांधीजी के विचारों का त्याग कांग्रेस पं. नेहरू के प्रथम कार्यकाल में ही कर चुकी थी। किन्तु पार्टी ने अपने बौद्धिक चिंतन के प्रबंधन का ठेका 1970-1971 में पूर्ण रूप से वाम दर्शनशास्त्रियों को सौंप दिया, जिसके बाद भारत के स्वर्णिम इतिहास को माक्र्स-मैकाले चश्मे से देखा जाने लगा। 

इस लंबे कालखंड में कई चेहरे बदले, तथाकथित सैकुलरवाद और उदारवाद का चोला भी ओढ़ लिया गया किन्तु कांग्रेस में ‘‘आऊटसोॄसग’’ की प्रथा अब भी जारी है। गुजरात चुनाव में उसकी रणनीति इसका प्रमाण है। लालच, धोखे और भय के कारण होने वाले मतांतरण के विरोध में गांधी जी जिस चर्च से लोहा लेते रहे वर्तमान कांग्रेस उसी के समर्थन में खड़ी दिखती है। यह स्थापित सत्य है कि कांग्रेस के कई नेताओं के संबंध चर्च से हैं। इसी पृष्ठभूमि में गुजरात चुनाव के दौरान गांधीनगर के रोमन कैथोलिक चर्च में प्रधान पादरी और वेटिकन के ध्वजवाहक थॉमस मैकवॉन की वह चिट्ठी महत्वपूर्ण हो जाती है जिसमें उन्होंने संकेतों के रूप में ईसाइयों और अन्य वर्गों से कांग्रेस के पक्ष में और भाजपा के विरुद्ध मतदान करने का आह्वान किया था। 

मैकवॉन ने लिखा था, ‘‘देशभर में राष्ट्रवादी ताकतें चरम पर हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम एक परिवर्तन ला सकते हैं क्योंकि इसकी प्रतिक्रिया और प्रतिध्वनि हमारे देश के भविष्य पर पड़ेगी। आज हमारे देश की पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र दाव पर है, मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है, संवैधानिक अधिकारों को कुचला जा रहा है।’’ पिछड़ों, गरीबों और अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा का भाव बढ़ता जा रहा है।’’ क्या यह सत्य नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी, विशेषकर कांग्रेस ने चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा पर निशाना साधने के लिए इन्हीं शब्दों का उपयोग किया था? 

विदेशी धन-बल के बूते ईसाई मिशनरियां और चर्च का एक बड़ा भाग अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए मतांतरण में संलिप्त है। इसका काला इतिहास 200 वर्षों से अधिक पुराना है। वर्तमान समय में जब कभी चर्च के इस ‘‘आत्मा के कारोबार’’ का राष्ट्रवादियों द्वारा विरोध होता है, तब चर्च और उसके समर्थक उपासना के अधिकार पर हमले का आरोप लगाकर हंगामा करने लगते है। आम ईसाई भाजपा के प्रति निष्पक्ष है। केवल चर्च ही खुले व गुप्त रूप से भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने मजहबी कत्र्तव्य (मतांतरण) के बीच बड़ा अवरोधक मानता है और उसका विरोध करता है। 

गुजरात की अपेक्षा हिमाचल प्रदेश के परिणाम चौंकाने वाले नहीं रहे। वर्ष 1990 से हर विधानसभा चुनाव में सत्ता परिवर्तन होना इस पहाड़ी राज्य की परंपरा बन चुकी है। भाजपा (44) और कांग्रेस (21) के बीच सीटों का अंतर 23 है, वह स्पष्ट करता है कि हिमाचली जनता ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का संज्ञान लिया है। अब यह देखना शेष है कि 4 राज्य और एक केन्द्र शासित प्रदेश तक सीमित कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी में यह परिवर्तन क्या विशुद्ध रूप से चुनाव से प्रेरित था या फिर वह अपने नेतृत्व में दल को उसके कटे हुए मूल चिंतन से जोडऩा चाहते हैं?-बलबीर पुंज

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