अवसरवादिता स्वार्थी नेता पैदा कर रही

Edited By ,Updated: 31 Mar, 2024 05:11 AM

opportunism is creating selfish leaders

प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की हालिया गिरफ्तारी सभी स्थापित लोकतांत्रिक मानदंडों के खिलाफ है। केजरीवाल जैसे एक प्रमुख विपक्षी नेता की गिरफ्तारी खासकर आगामी आम चुनावों को देखते हुए चिंता पैदा करती है।

प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की हालिया गिरफ्तारी सभी स्थापित लोकतांत्रिक मानदंडों के खिलाफ है। केजरीवाल जैसे एक प्रमुख विपक्षी नेता की गिरफ्तारी खासकर आगामी आम चुनावों को देखते हुए चिंता पैदा करती है। यक्ष प्रश्न यह  उठता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ भाजपा चुनाव से पहले विपक्षी आवाजों को खत्म करने की कोशिश कर रही है? 

प्रथम दृष्टया, नरेंद्र मोदी की तीसरी बार जीत की भविष्यवाणी करने वाले कई सर्वेक्षणों के निष्कर्षों को देखते हुए, यह धारणा बेतुकी लगती है। वैसे भी, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता आसमान छू रही है और सरकार समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी है। परिणामस्वरूप, उन्हें अपने दोबारा चुने जाने को लेकर डरने की कोई बात नहीं है। हालांकि विपक्ष, मीडिया, शिक्षा जगत और नागरिक समाज के लिए जगह कम होने की चिंताजनक प्रवृत्ति है। 

यह पहचानना आवश्यक है कि भाजपा की केंद्रीकरण-समर्थक प्रवृत्ति एक अधिक ध्रुवीकृत संघीय राजनीति का निर्माण कर रही है जो सर्वसम्मति-आधारित शासन, संघीय सहयोग और धर्मनिरपेक्षता से भटक रही है। ऐसे पर्याप्त संकेत हैं जो तेजी से केंद्रीकृत और निरंकुश शासन की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए, इंडियन एक्सप्रैस की एक जांच से पता चला है कि 2014 से 2022 के बीच 121 जाने-माने राजनेताओं की ई.डी. ने जांच की थी। उनमें से 115 विपक्षी नेता थे, जिनमें 95 प्रतिशत मामले शामिल थे। यह यू.पी.ए. शासन (2004 से 2014) के दौरान ई.डी. की गतिविधि के विपरीत है, जहां केवल 26 राजनीतिक नेताओं की जांच की गई थी, जिनमें से 14 विपक्षी नेता थे, जो आधे से अधिक मामलों (54 प्रतिशत) के लिए जिम्मेदार थे। 

भारत के लोकतंत्र के भीतर इस स्पष्ट प्रवृत्ति की सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है, खासकर भारत के विविध परिदृश्य को देखते हुए। आम चुनाव से कुछ हफ्ते पहले केजरीवाल की गिरफ्तारी से राजनीतिक तनाव बढ़ गया है और भाजपा के असली इरादों पर सवाल उठने लगे हैं। केजरीवाल के खिलाफ दिल्ली के शराब कारोबारियों से कथित रिश्वत लेने के आरोप कानून प्रवर्तन एजैंसियों के राजनीतिकरण और लोकतांत्रिक मानदंडों के क्षरण को दर्शाते हैं। इस संदर्भ में, यह कहा जाना चाहिए कि कोई भी सबूत सीधे तौर पर केजरीवाल या उनके डिप्टी मनीष सिसोदिया को इन रिश्वतों से नहीं जोड़ सकता है। लेकिन फिर भी, हम अच्छी तरह से जानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र अपनी खामियों के साथ कैसे काम करता है। 

ईमानदारी से कहें तो भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में मनी ट्रेल स्थापित करना कठिन है। स्वतंत्र भारत में, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता और समानता के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता भारत के वैश्विक प्रभाव का मूलभूत स्रोत थी। अब ऐसा नहीं है। इस बदलते परिदृश्य के खिलाफ, भारत को नए, मजबूत संघीय संस्थानों की आवश्यकता है। अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी उनकी हिरासत के आसपास की असामान्य परिस्थितियों को उजागर करती है। आइए वर्ष 2002 में वापस जाएं, जब धन शोधन निवारण अधिनियम (पी.एम.एल.ए.) पेश किया गया था। इसका इरादा आतंकवाद और मादक पदार्थों की तस्करी जैसे गंभीर अपराधों से जुड़े मनी लॉड्रिंग से निपटना था। ये मामले जटिल हैं क्योंकि बिना कोई निशान छोड़े पैसा ले जाना आमतौर पर आसान होता है। इसलिए, एजैंसियों को कार्य करने के लिए अधिक शक्ति की आवश्यकता है। 

इस प्रकार पी.एम.एल.ए. अधिकारियों को मनी लॉड्रिंग के कम सबूत के साथ किसी को गिरफ्तार करने या उनकी संपत्ति जब्त करने जैसे बड़े कदम उठाने की अनुमति देता है। सबूतों से बस इतना ही पता चलता है कि मनी लांड्रिंग हुई हो सकती है। पी.एम.एल.ए. अपराध के लिए जमानत पाना भी कठिन है। यह सुनिश्चित करता है कि आरोपी भाग न जाए, सबूतों के साथ छेड़छाड़ न करे, या गवाहों को प्रभावित न करे। पी.एम.एल.ए. सबसे सख्त कानूनों में से एक है और इसके दुरुपयोग की जबरदस्त संभावना है। केजरीवाल की गिरफ्तारी पर गहन फोकस पी.एम.एल.ए. के संभावित दुरुपयोग और मजबूत संस्थानों की आवश्यकता का स्पष्ट उदाहरण है। केजरीवाल मामले का नतीजा इस अधिनियम को लागू करने वाले लोगों में विश्वास का एक महत्वपूर्ण उपाय होगा। 

जो भी हो, भारत के लोकतंत्र को अभी भी अपने संवैधानिक आदर्शों को पूरी तरह से साकार करना बाकी है। उभरती चुनौतियों के बीच, लोकतंत्र को बचाए रखना एक कठिन संघर्ष है जिसके लिए सभी भारतीयों को पूरी प्रतिबद्धता और दृढ़ संकल्प के साथ लडऩा होगा। वर्तमान गतिशील समाज में, परिवर्तन अपरिहार्य है। फिर भी, निहित स्वार्थ प्रगति में बाधक हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो यथास्थिति से बंधे हुए हैं। अपना सब कुछ हड़पने की मानसिकता से प्रभावित होकर, वे तर्कसंगतता के संरक्षक नहीं रह गए हैं। उस मामले में, तर्क और तर्कसंगतता अब हमारे नेताओं का मार्गदर्शन नहीं करते हैं। राजनीति उनके लिए जाति और धन आधारित चुनावी खेल के रूप में देखी जाती है। वे चुनावी लाभ के लिए राजनीति को जाति और धन को साथ मिलाकर पनपते हैं। क्या हमारे पास ऐसी स्थितियों का कोई उत्तर है? 

हमारे जैसे लोकतांत्रिक समाज में, पारदर्शी और ईमानदार संचार महत्वपूर्ण है, खासकर चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में। हालांकि, यह निराशाजनक है कि ईमानदार और भरोसेमंद व्यक्तियों को धीरे-धीरे किनारे कर दिया गया है। नतीजतन, वे स्वतंत्र और स्वतंत्र विचारकों के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने का विकल्प चुनते हुए, खुद को राजनीति के अस्पष्ट दायरे से दूर कर लेते हैं। इस प्रकार, अत्यधिक राजनीतिक माहौल में, स्वतंत्र विचारधारा वाले व्यक्तियों को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अवसरवादिता हावी है, जिससे स्वार्थी नेता पैदा हो रहे हैं। इन मुद्दों के समाधान के लिए वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों की दिशा में ठोस प्रयासों की आवश्यकता है।-हरि जयसिंह
 

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