कीमती पराली हर साल ‘जलती और बदनाम होती है’

Edited By ,Updated: 19 Oct, 2020 02:39 AM

precious straw is  burning and infamous  every year

पराली को लेकर आधे अक्तूबर से दिसंबर और जनवरी के शुरू तक बेहद हो-हल्ला होता है। व्यापक स्तर पर चिन्ता की जाती है, किसानों पर दंड की कार्रवाई की जाती है। बावजूद इसके समस्या जस की तस रह जाती है। सच तो यह है कि जिस पराली

पराली को लेकर आधे अक्तूबर से दिसंबर और जनवरी के शुरू तक बेहद हो-हल्ला होता है। व्यापक स्तर पर चिन्ता की जाती है, किसानों पर दंड की कार्रवाई की जाती है। बावजूद इसके समस्या जस की तस रह जाती है। सच तो यह है कि जिस पराली को बोझ समझा जाता है वह बहुत बड़ा वरदान है। कीमती पराली हर साल जलती भी है और बदनाम भी होती है। 

अच्छी खासी कमाई का जरिया भी बन सकती है बशर्ते उसकी खूबियों को समझना होगा। लेकिन कहते हैं न हीरा तब तक पत्थर ही समझा जाता है जब तक कि उसे तराशा न जाए। पराली के भी ऐसे ही अनेकों फायदे हैं। न केवल उन्हीं खेतों के लिए यह वरदान भी हो सकती है बल्कि पशुओं के लिए तो सनातन से खुराक ही है। 

इसके अलावा पराली के वह संभावित उपयोग हो सकते हैं जिससे देश में एक नया और बड़ा भारी उद्योग भी खड़ा हो सकता है जिसकी शुरूआत हो चुकी है। इसके लिए जरूरत है सरकारों, जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों, वैज्ञानिकों, किसानों और बाजार के बीच जल्द से जल्द समन्वय की और खेतों में ठूंठ के रूप में जलाकर नष्ट की जाने वाली पराली जिसे अलग-अलग रूप और नाम में पुआल, नरवारी, पैरा और भूसा भी कहते हैं जो सोने की कीमतों जैसे उछाल मारेगी। 

बस इसी का इंतजार है जब पराली समस्या नहीं वरदान बन जाएगी। देखते ही देखते भारत में एक बड़ा बाजार और उद्योग का रूप लेगा। वह दिन दूर नहीं जिस पराली के धुएं ने न जाने कितने छोटे बड़े शहरों को गैस चैम्बर में तबदील कर दिया है वह ढूंढने से भी नहीं मिलेगी और उसका धुआं तो छोडि़ए, उस गंध को भी लोग भूल चुके होंगे। 

सच तो यह भी है कि पराली पहले इतनी बड़ी समस्या नहीं थी जो आज है। पहले  हाथों से कटाई होती थी तब खेतों में बहुत थोड़े से ठूंठ रह जाते थे जो या जुताई से निकल जाते थे या फिर पानी से गलकर मिट्टी में मिल उर्वरक बन जाते थे। लेकिन चूंकि मामला राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र उसमें भी दिल्ली से जुड़ा हुआ है जहां पर 24 घंटे लाखों गाडिय़ां बिना रुके दौड़ती रहती हैं इसलिए पराली का धुआं वाहनों के जले जहरीले धुएं में मिल हवा को और ज्यादा खतरनाक बना देता है। बस हो-हल्ला इसी पर है। 

चूंकि पराली का कोई समाधान है नहीं इसलिए सीधे जलाना किसान की मजबूरी भी बन जाती है। यही नहीं भूसे के रूप में बेजुबान पशुओं का हक भी मारा जाता है। इस तरह भूमि के कार्बनिक तत्व, कीमती बैक्टीरिया, फफूंद भी जलाने से नष्ट हो जाते हैं ऊपर से पर्यावरण को नुक्सान और ग्लोबल वॉर्मिंग एक्स्ट्रा होती ही है। पराली जलाकर उसी खेत का कम से कम 25 प्रतिशत खाद भी अनजाने ही नष्ट कर दिया जाता है। एक अध्ययन से पता चला है कि प्रति एकड़ पराली के ठूंठ जलाकर कई पोषक तत्वों के साथ लगभग 400 किलो ग्राम फायदेमंद कार्बन, मिट्टी के एक ग्राम में मौजूद 10 से 40 करोड़ बैक्टीरिया और 1 से 2 लाख फफूंद जल जाते हैं जो फसल के लिए जबरदस्त पोषण का काम करते हैं। बाद में इन्हें ही फसल के न्यूट्रीशन के लिए ऊंची कीमतों में अलग-अलग नाम से खरीद कर खेतों को वापस देते हैं। 

देश में कई गांवों में महिलाएं पराली से चटाई और बिठाई (छोटा टेबल, मोढ़ा) जैसी वस्तुएं बनाती हैं। अभी भोपाल स्थित काऊंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च  यानी सी.एस.आई.आर. और एडवांस मैटीरियल्स  एंड प्रोसैस रिसर्च यानी एम्प्री ने तीन साल की कोशिशों के बाद एक तकनीक विकसित की है जिसमें धान की पराली, गेहूं व सोयाबीन के भूसे से प्लाई बनेगी। इसमें 30 प्रतिशत पॉलीमर यानी रासायनिक पदार्थ और 70 प्रतिशत पराली होगी। इसके लिए पहला लाइसैंस भी छत्तीसगढ़ के भिलाई की एक कंपनी को दे दिया गया है जिससे 10 करोड़ की लागत से तैयार कारखाना मार्च 2021 से उत्पादन शुरू कर देगा। सबसे बड़ी खासियत यह कि देश में यह इस किस्म की पहली तकनीक है जिसे यू.एस.ए., कनाडा, चीन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्पेन समेत आठ देशों से पेटैंट मिल चुका है।-ऋतुपर्ण दवे
 

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