कब समाप्त होगा श्रीलंका का ‘राजनीतिक संकट’

Edited By Pardeep,Updated: 31 Oct, 2018 04:42 AM

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विश्व हैरान है कि राष्ट्रपति मैत्रिपाल सिरीसेना द्वारा गत शुक्रवार को रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर अपने पूर्ववर्ती मङ्क्षहदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त करने के बाद श्रीलंका में क्या हो रहा है, जिसका परिणाम एक संवैधानिक संकट के रूप में निकला है।...

विश्व हैरान है कि राष्ट्रपति मैत्रिपाल सिरीसेना द्वारा गत शुक्रवार को रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर अपने पूर्ववर्ती मङ्क्षहदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त करने के बाद श्रीलंका में क्या हो रहा है, जिसका परिणाम एक संवैधानिक संकट के रूप में निकला है। न्यूयार्क टाइम्स ने स्थिति के बाद के घटनाक्रम को इस तरह उल्लेखित कियाहै कि ‘देश की राजनीतिक प्रणाली दिनों में ही धराशायी हो गई है, जो दशकों तक चले गृह युद्ध से इसके उद्भव  के समाप्त होने का खतरा बन गई है।’ 

यह हैरानीजनक है कि क्यों नई दिल्ली केवल इतना ही कह रही है कि वह घटनाक्रम पर ‘करीबी नजर’ रख रही है, जबकि अमरीका, यूरोपीय संघ तथा अन्यों का कहना है कि संविधान का पालन अवश्य होना चाहिए। मजे की बात यह है कि तमिलनाडु, जो महज 28 मील दूर है, जैसे कि श्रीलंका से कौवे की उड़ान, ने घटनाक्रम पर टिप्पणी की है। घरेलू राजनीति में दखल देते हुए द्रमुक प्रमुख एम.के. स्टालिन ने तुरंत मोदी सरकार पर श्रीलंकाई तमिलों के हितों की परवाह न करने का आरोप लगा दिया। राज्य में जयललिता अथवा करुणानिधि जैसे बड़े कद के नेता न होने के बावजूद स्टालिन ने केन्द्र की आलोचना करने में बाजी मार ली। हालांकि सत्ताधारी अन्नाद्रमुक ने कुछ नहीं कहा है, भारत की श्रीलंका नीति को लेकर द्राविडिय़न पार्टियों के बीच हमेशा प्रतिस्पर्धा रही है। भीतरी लोगों का कहना है कि भाजपा सम्भावित चुनाव बाद गठबंधन के लिए द्रमुक के साथ सौदेबाजी कर रही है, जिसके बदले में वह विधानसभा चुनाव जल्दी करवाएगी (जो 2020 में होने हैं) जैसा कि स्टालिन चाहते हैं। श्रीलंका मुद्दे का इस्तेमाल करके स्टालिन अपनी कीमत बढ़ा रहे हैं। 

तमिलनाडु को यह समझना चाहिए कि श्रीलंका बदल रहा है क्योंकि मुद्दा अब सिंहली बनाम तमिलों का नहीं रहा। श्रीलंका के उत्तरी भाग में रह रहे तमिल अभी भी विभीषिका से उबर नहीं पाए हैं। कोई ऐसा नेता नहीं है, जो तमिलों की चिंताओं को उठा सके क्योंकि अब स्थितियां काफी बदल चुकी हैं। लिट्टे(लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम) का खात्मा हो गया है और लिट्टे के पुन: संगठित होने की अफवाहों के बावजूद यहां कोई बड़ा नेता नहीं है। श्रीलंका के तमिल राजनीतिक दलों में समझौते को लेकर कोई एकता नहीं है। टी.एन.ए. को संयमित माना जाता है, जबकि उत्तरी प्रांत के मुख्यमंत्री सी.वी. विग्नेश्वरन (जिन्होंने कुछ समय पहले एक नया संगठन बनाया था) टी.एन.ए. से अलग हो गए हैं। मजे की बात यह है कि राजपक्षे ने आगे बढ़ते हुए यह कह कर तमिलों के साथ गठबंधन बनाया है कि मुसलमान उनके सांझे शत्रु हैं। यहां तक कि जब गत माह वह नई दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से मिले थे तो उन्होंने मुसलमानों को उसी आधार पर देखा था।

श्रीलंका का मामला ऐसी कठिन स्थिति में कैसे पहुंचा? यह कोई बड़ा रहस्य नहीं है कि विक्रमसिंघे तथा सिरीसेना के बीच संबंध अच्छे नहीं रहे। उनकी पाॢटयां पारम्परिक विरोधी हैं और सत्ता की खातिर 2015 में वे साथ आई थीं। राष्ट्रपति श्रीलंका के लम्बे चले गृह युद्ध, जो 2009 में समाप्त हुआ, के दौरान मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच के भी आलोचक थे। उनके बीच तनाव हाल ही में चरम पर पहुंच गया जब रानिल ने अपने खिलाफ सिरीसेना द्वारा प्रेरित अविश्वास प्रस्ताव को पराजित कर दिया। विद्रोह की योजना पूर्ण गोपनीयता के साथ बनाई गई थी। उससे पहले 18 से 20 अक्तूबर तक विक्रमसिंघे का आधिकारिक भारतीय दौरा नई दिल्ली को यह आश्वासन देने के लिए था कि उथल-पुथल भरी आंतरिक राजनीति के बावजूद वह श्रीलंका की महत्वपूर्ण व्यापार तथा विकास सांझेदार बनी रहेगी। यह ज्ञात नहीं है कि क्या रानिल संभावित विद्रोह के बारे में जानते थे और क्या उन्होंने मोदी से इस बारे चर्चा की? 

यह स्पष्ट नहीं है कि सिरीसेना तथा राजपक्षे ने विक्रमसिंघे को हटाने के लिए संवैधानिक मार्ग क्यों नहीं चुना। स्वाभाविक है कि इस माह के शुरू में सिरीसेना तथा राजपक्षे के बीच बैठक ने बगावत का मार्ग प्रशस्त कर दिया था, जब राजपक्षे ने राष्ट्रपति को मना लिया कि उन्हें आपस में नहीं लडऩा चाहिए और एक सत्ता हिस्सेदारी का सुझाव दिया जिसके तहत उन्हें अब प्रधानमंत्री के तौर पर नियुक्त किया गया है। रानिल अड़ गए हैं और जोर दे रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री बने रहेंगे और संसद में अपना बहुमत साबित करेंगे। तकनीकी रूप से वह सही हैं कि 2015 में 19वें संशोधन के बाद प्रधानमंत्री केवल निधन, त्याग पत्र, संसद सदस्य न रहने पर अथवा सरकार द्वारा संसद में अपना विश्वास खोने पर ही अपने पद से बाहर हो सकते हैं। 

सिरीसेना ने चालाकी से 15 नवम्बर तक संसद को स्थगित कर दिया है, सम्भवत: राजपक्षे को अन्य दलों के सदस्य तोडऩे के लिए पर्याप्त समय देने हेतु क्योंकि उनके पास केवल 95 जबकि रानिल के पास 106 वोट हैं। विक्रमसिंघे को अपने सदस्यों को एकजुट रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। राजपक्षे खेमे का दावा है कि यू.एन.पी. के 21 सदस्य दल-बदल के लिए तैयार हैं। इस बीच श्रीलंका मुस्लिम कांग्रेस के नेता राऊफ हकीम ने कहा है कि उनकी पार्टी मजबूती से विक्रमसिंघे का समर्थन करेगी। अल्पसंख्यक तमिल तथा मुस्लिम पाॢटयों के दो अन्य नेताओं ने भी कहा है कि वे विक्रमसिंघे का समर्थन करेंगे। इस तरह से संख्या का खेल जारी है। 

श्रीलंका का संकट सम्भवत: कुछ और समय जारी रहेगा। जब तक राजपक्षे अथवा रानिल यह नहीं दिखाते कि उनको संसद में विश्वास प्राप्त है और राष्ट्रपति को संसद की इच्छा स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करते, तब तक संकट का समाधान नहीं होगा। इस बात की भी सम्भावना है कि संसदीय तथा राष्ट्रपति के चुनाव जल्दी करवा लिए जाएं। जहां तक भारत की बात है, अंतत: हमें उसी के साथ बात करनी होगी, जो जीतेगा। नई दिल्ली को विश्वासपूर्ण तरीके से संकट से निपटना होगा और सोचना होगा कि हमारे हितों के लिए सर्वश्रेष्ठ क्या है। हमारे पास कई स्रोत हैं और नई दिल्ली को उन सभी का इस्तेमाल करना चाहिए।-कल्याणी शंकर

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