जल्दी न्याय उपलब्ध करवाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिएं

Edited By ,Updated: 27 Jul, 2021 04:59 AM

steps should be taken to provide speedy justice

कोविड से पहले ही देश की न्याय व्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं थी। अपने देश में 73 प्रतिशत आपराधिक मामलों में निर्णय आने में 1 वर्ष से अधिक का समय लग रहा था। इसके सामने ऑस्ट्रेलिया में केवल 4 प्रतिशत

कोविड से पहले ही देश की न्याय व्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं थी। अपने देश में 73 प्रतिशत आपराधिक मामलों में निर्णय आने में 1 वर्ष से अधिक का समय लग रहा था। इसके सामने ऑस्ट्रेलिया में केवल 4 प्रतिशत  आपराधिक मामलों पर 1 वर्ष से अधिक अवधि में निर्णय दिए जाते हैं। शेष 96 प्रतिशत  मामले 1 वर्ष से कम समय में तय कर दिए जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि 73 और 4 प्रतिशत का फासला बहुत अधिक है।

हमारी यह दुरू परिस्थिति तब थी जब कोविड से पहले हमारे न्यायालयों में लंबित वादों की सं या में विशेष वृद्धि नहीं हो रही थी। वर्ष 2019 में 1.16 लाख वाद प्रतिमाह दायर किए गए थे, जबकि 1.10 लाख वाद पर प्रतिमाह निर्णय दिए गए। लंबित वादों की सं या में प्रति वर्ष केवल 6,000 की वृद्धि हो रही थी। कोविड के समय अप्रैल 2020 में  83,000 नए वाद दायर किए गए जबकि निर्णय केवल 35,000 का हुआ, यानी 48,000 नए वाद लंबित रह गए। स्पष्ट है कि कोविड के समय हमारी न्याय व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। 

न्याय में देरी का आर्थिक विकास पर कई प्रकार से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पहला यह कि तमाम पूंजी अनुत्पादक रह जाती है। जैसे मेरी जानकारी में किसी फैक्टरी की भूमि का विवाद था। हाईकोर्ट में उस विवाद पर निर्णय आने में 25 वर्ष का समय लग गया। इसके बाद जो पक्ष हारा उसने पुनॢवचार याचिका दायर कर दी। पुनॢवचार याचिका पर निर्णय आने के बाद सुप्रीमकोर्ट में वाद दायर किया गया। 40 वर्ष की लंबी अवधि में देश की वह पूंजी अनुत्पादक बनी रही और देश की जी.डी.पी. में इसका योगदान नहीं हो सका। 

इसी क्रम में विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि न्याय में देरी से भारत की जी.डी.पी. में 0.5 प्रतिशत की गिरावट आती है, जबकि इंस्टीच्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पीस ने अनुमान लगाया है कि आपराधिक मामलों में न्याय में देरी होने से अपराधियों में हिंसा बढ़ती है और जिसके कारण हमारे जी.डी.पी. में  9 प्रतिशत की गिरावट आती है। जब न्याय शीघ्र नहीं मिलता तो गलत कार्य करने वालों को बल मिलता है। जैसे यदि किसी किराएदार को मकान खाली करना था और उसने नहीं किया। यदि मकान मालिक कोर्ट में गया और उस वाद में 10 साल लग गए तो किराएदार को कमरा न खाली करने का प्रोत्साहन मिलता है। न्याय में देरी से अपराधियों का मनोबल बढ़ता है जिससे पुन: आर्थिक विकास प्रभावित होता है। 

इस स्थिति में सुप्रीमकोर्ट और सरकार द्वारा चार कदम उठाए जा सकते हैं। पहला कदम यह कि सुप्रीमकोर्ट एवं हाईकोर्ट में वर्तमान में 1079 में से 403 यानी 37 प्रतिशत पद रिक्त हैं। मेरी जानकारी में इसका कारण मु यत: यह है कि न्यायाधीश पर्याप्त सं या में जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव सरकार को नहीं भेज रहे। नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद भी सर्वविदित है। जज के पद पर जजों के परिजनों की नियुक्ति अधिक सं या में होती है। संभव है कि मु य न्यायाधीशों द्वारा पर्याप्त संख्या  में नियुक्ति के प्रस्ताव न भेजने का यह भी एक कारण हो। सुप्रीमकोर्ट को इस दिशा में हाईकोर्ट के मु य न्यायाधीशों को स त आदेश देना चाहिए कि पद रिक्त होने के 3 या 6 महीने पहले ही पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की संस्तुतियां भेज दी जानी चाहिएं। 

दूसरा कदम यह कि कोर्ट के कार्य दिवसों की संख्या में वृद्धि की जाए। एक गणना के अनुसार सुप्रीमकोर्ट में 1 वर्ष में 189 कार्य दिवस होते हैं, हाईकोर्ट में 232 और निचली अदालतों में 244 दिन। इसकी तुलना में सामान्य सरकारी कर्मचारी को लगभग 280 दिन कार्य करना होता है। देश के आम मजदूर को संभवत: 340 दिन कार्य करना होता है। मजदूर 340 दिन कार्य करें और उन्हें न्याय दिलाने के लिए नियुक्त न्यायाधीश केवल 189 दिन कार्य करें, यह कैसा न्याय है? सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज घर पर आराम करें और आपराधिक मामलों में निरपराध लोग जेल में बंद रहें, यह कैसा न्याय है? मैं समझता हूं कि सुप्रीमकोर्ट को स्वत: संज्ञान लेकर अपने कार्य दिवसों में वृद्धि करनी चाहिए क्योंकि जनता को न्याय उपलब्ध कराने की प्राथमिक जिम्मेदारी उन्हीं की है। 

तीसरा कदम यह कि अनावश्यक तारीखें न दी जाएं। जजों और वकीलों का एक ‘अपवित्र गठबंधन’ बन गया है। अधिकतर वादों में वकीलों द्वारा हर सुनवाई की अलग फीस ली जाती है इसलिए जितनी बार सुनवाई स्थगित हो और जितनी देरी से कोर्ट द्वारा निर्णय लिया जाए, उतना ही वकीलों के लिए हितकर होता है।

अधिकतर वकील ही जज बनते हैं। अपनी बिरादरी के हितों की वे रक्षा करते हैं। इस गठबंधन को तोडऩे के लिए सुप्रीमकोर्ट को आदेश देना चाहिए कि किसी भी मामले में कोई वकील एक बार से अधिक तारीख नहीं ले। इसकी मिसाल स्वयं सुप्रीमकोर्ट को पेश करनी चाहिए। चौथा कदम यह कि वर्चुअल हियरिंग को बढ़ावा दिया जाए। इससे दूर-दराज क्षेत्रों में स्थित वकीलों के लिए मामले की पैरवी करना आसान हो जाएगा। वर्चुअल हियरिंग की जानकारी जनता को देनी चाहिए। हमारे कानून में किसी भी वादी को स्वयं अपना मामले में दलील देने का अधिकार है। 

वर्चुअल हियरिंग के माध्यम से वादी स्वयं अपने वाद की पैरवी आसानी से कर सकता है। वर्चुअल हियरिंग का वकीलों द्वारा विरोध किया जा रहा है जो कि उचित नहीं। सही है कि लगभग आधे वकीलों के पास लैपटॉप नहीं होगा लेकिन कोविड की स्थिति को देखते हुए  और जनता को त्वरित न्याय उपलब्ध कराने की उनकी जि मेदारी को देखते हुए उनके लिए लैपटॉप पर कार्य करने को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।-भरत झुनझुनवाला'
 

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