कुछ बातों को लेकर अलग था अप्रैल-2003 का महीना

Edited By ,Updated: 17 Apr, 2021 04:09 AM

the month of april 2003 was different on some things

अप्रैल 2003 का महीना कुछ बातों को लेकर सबसे अलग था जहां एक ओर यह ईराकी लोगों के लिए क्रूर महीना था, वहीं दूसरी ओर भारत के दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के द्वारा पाकिस्तान पर यह माह प्रतिबिम्ब का महीना था। इसके अ

अप्रैल 2003 का महीना कुछ बातों को लेकर सबसे अलग था जहां एक ओर यह ईराकी लोगों के लिए क्रूर महीना था, वहीं दूसरी ओर भारत के दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के द्वारा पाकिस्तान पर यह माह प्रतिबिम्ब का महीना था। इसके अलावा इसने भारतीय वैश्विक नजरिए के लिए एक अद्भुत मौका प्रदान किया क्योंकि कुछ समर्पित भारतीय पत्रकारों ने इस महीने ऐतिहासिक घटनाओं से धुंध को हटाने में मदद की। 

3 अप्रैल तक अमरीकियों ने ईराक पर कब्जा कर लिया था। अमरीकी उप राष्ट्रपति डिक चेनी जोकि ईराक पर कार्रवाई के वास्तविक रचनाकार थे, 9 अप्रैल को जीत की घोषणा करने के लिए उत्सुक थे। यह एक शानदार मीडिया कार्यक्रम होना था। आखिरकार चेनी ने 300 से अधिक पत्रकारों को सुरक्षाबलों के साथ जोड़ा था। एक तैयार बयान में डिक चेनी ने वैश्विक मीडिया पर जीत की घोषणा करनी थी। उनके कथन को फिरदौस चौराहे पर सद्दाम हुसैन के बुत को गिराने का एक उल्लासपूर्ण दृश्य के साथ जोड़ा गया था। इसके साथ-साथ उनके बयान को लोकप्रिय उथल-पुथल की छवियों के साथ जोड़ा गया। 

चेनी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इस क्षण को सभी चैनलों की चालों के साथ उजागर किया जाएगा। भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पहली बार भारतीय वैश्विक नजरिए ने बगदाद, नजफ, इस्तांबुल, यरुशलम, ओमान तथा लेबनान में कैमरा यूनिट तथा पत्रकारों को लगाया था। इनमें से कुछ पत्रकार फिलस्तीन होटल में रुके हुए थे जहां से वह वास्तविक कहानी के गवाह थे जिसे दुनिया को पता नहीं था। सद्दाम के बुत को उखाड़ फैंकने वाले दृश्य के विपरीत अमरीकियों को अपने बारे में सोचना पड़ा। उन्हें प्रतिष्ठित छवियों को सुधारना पड़ा क्योंकि लोकप्रिय उतार-चढ़ाव केवल भौतिक रूप से नहीं हुआ था। अमरीकी नौसैनिकों को क्रेन से बुत को गर्दन से उखाडऩे के लिए तैयार किया गया था। 

1991-92 में नजफ और करबला में शिया विद्रोह से प्रोत्साहित होकर आप्रेशन ‘डैजर्ट स्ट्रॉम’ को सद्दाम हुसैन द्वारा कठोर रूप से नीचा दिखाया गया था। केवल एकमात्र इमाम हुसैन की क्षतिग्रस्त दरगाह के चित्रों को विश्व तक टी.वी. क्रू का नेतृत्व कर रहे इसी रिपोर्टर ने पहुंचाया था। शिया शरणार्थी बगदाद के बाहरी इलाके में एक विशाल यहूदी बस्ती में बस गए थे। उन दिनों इसका नाम अन्य नामों की तरह ईराक में सद्दाम सिटी रखा गया था। चेनी की टीम को यह बताया गया कि ‘सद्दाम के पतन’ पर  रोमांचित हो रहे लोगों का एक समूह वास्तव में यहूदी बस्तियों में असंतुष्ट शिया कैदियों का था। 

विवादास्पद मौलवी मुकतादा सदर के साथ एक सौदा हुआ। ‘सद्दाम सिटी’ का नाम बदल कर ‘सदर सिटी’ रख दिया गया। बगदाद की सड़कों पर जश्र का माहौल था। सदर सहर की भीड़ ने सद्दाम हुसैन के पोस्टरों को रौंद दिया और अपने जूतों से उसे पीटा गया। ईराक के शिया लोगों के साथ अमरीकी प्रेम लीला दफन हो गई। 20 मार्च 2005 को न्यूयार्क टाइम्स के थॉमस फ्राइड मैन ने अयातुल्लाह अली सिस्तानी को नोबेल पुरस्कार देने के लिए सिफारिश की। राज्य पर शासन करने के लिए  मौलवी की भूमिका को लेकर अयातुल्लाह तेहरान के साथ अलग मत रखते थे। चेनी की ईराक में त्वरित जीत के साथ नई दिल्ली में अमरीकी दूतावास की ऊर्जावान कूटनीति के साथ मिलान किया गया। 

दूतावास ने ईराक के कुर्दिश इलाके के प्रशासन को हाथ में लेकर अमरीकी जीत में साऊथ ब्लाक की भागीदारी के लिए राजी किया। शक्तिशाली कैबिनेट मंत्री जसवंत सिंह को अमरीकियों को नर्म करने के लिए मोहने का प्रयास किया गया। अपने कैबिनेट सहयोगियों को नकारते हुए एक कुशल राजनेता के रूप में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी गहरे प्रतिबिंब में चले गए। उन्होंने माकपा के महासचिव और अपने दोस्त ए.बी. वर्धन को ताना मारते हुए कहा कि, ‘‘क्या आप कुर्दिश ईराक पर भारतीय कब्जे का समर्थन कर रहे हैं?’’ वर्धन ने कहा, ‘‘बिल्कुल नहीं।’’ 

वाजपेयी ने आगे कहा, ‘‘मगर मैं देखता हूं कि कोई विरोध नहीं है।’’ इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री सड़क पर बेचैनी के संकेत देख रहे थे। इस लेन-देन का स्रोत वर्धन थे और वाजपेयी ने इसे नकारा नहीं। यह भारत और पाकिस्तान के बीच असाधारण तनाव का दौर था। भारतीय संसद पर 13 दिसम्बर 2001 में हमले के बाद दोनों देशों की सेनाएं टकराव की स्थिति में थीं। 18 अप्रैल को वाजपेयी श्रीनगर पहुंचे और उन्होंने इस बात का अपनी कैबिनेट के सहयोगियों को संकेत नहीं दिया। उन्होंने पाकिस्तान की ओर शांति का हाथ बढ़ाया। उस समय एक बढिय़ा शक्ति उत्पन्न हुई। क्षेत्रीय झगड़ों का अब कोई मतलब नहीं था।  क्षेत्र में झगड़े अब शांत हो चुके थे।  इसके बाद 4 जनवरी 2004 को इस्लामाबाद में भारत-पाक सम्मेलन हुआ। उन्होंने क्षेत्रीय शांति को खोजा। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक क्षेत्रीय समझौता एक अलग हालातों के द्वारा समॢपत हुआ है। एक साथ इकट्ठे आ रहे चीन, रूस, ईरान तथा पाकिस्तान को देखते हुए अमरीकी दोस्त हमें अब दूर दिखाई देता है। अप्रैल 2003 को भारतीय पत्रकारों ने वैश्विक नजरिए से देखा है। इससे पहले उन्होंने ऐसा कोई अनुभव नहीं किया था। उनका विचार युद्ध को भारतीय नजरिए से कवर करने का था।-सईद नकवी 
       

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