पर्यावरण बचाने के लिए क्रांति की जरूरत

Edited By Pardeep,Updated: 03 Dec, 2018 04:17 AM

the need for revolution to save the environment

दिल्ली का दम घुट रहा है। दिल्ली के कारखानों और गाडिय़ों का धुआं पहले ही कम न था, अब हरियाणा से पराली जलाने का धुआं भी उड़कर दिल्ली आ जाता है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदूषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट गई है। हल्ला तो बहुत...

दिल्ली का दम घुट रहा है। दिल्ली के कारखानों और गाडिय़ों का धुआं पहले ही कम न था, अब हरियाणा से पराली जलाने का धुआं भी उड़कर दिल्ली आ जाता है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदूषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट गई है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदूषण का यही हाल है।

रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकूलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पैस्टीसाइड,धरती और आकाश पर गाडिय़ां और हवाई जहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। प्रदूषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना बहुत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई से  ‘ग्लोबल’ वाॄमग की समस्या बढ़ती जा रही है। 

जलापूर्ति पर प्रभाव
पर्यावरण के विनाश से सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ रहा है। इससे पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछली सरकारों ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गांवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गांव फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आते जा रहे हैं। सरकार द्वारा पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की गई है, जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित है। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व है कि वे हर गांव में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएं। यह आसान काम नहीं है। 

एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गांव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थितियों में एक अधिकारी कितने गांवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए सरकार की योजना विफल हो रही है। आज से 37 वर्ष पहले सरकार ने हैंडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा था। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गई और पानी की टंकियां बनाई गई थीं पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया।

आज हालत यह है कि अनेक राज्यों के अनेक गांवों में कुएं सूख गए हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनके कैचमैंट एरिया पर अंधाधुंध निर्माण हो गया और उनमें गांव की गंदी नालियां और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। अब ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुंडों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गई है पर अब तक इसमें राज्य सरकारें विफल रही हैं। बहुत कम क्षेत्र हैं जहां नरेगा के अंतर्गत कुंडों का जीर्णोद्धार हुआ है और उनमें जल संचय हुआ है वह भी पीने के योग्य नहीं। 


आचरण पर असर नहीं
दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुंडों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है, जहां सेवा और त्याग की भावना है, वहां सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है पर उसका असर हमारे आचरण में दिखाई नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुओं, कुंडों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुआं छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं।

अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाइट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आएगा, यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहां भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोडऩा चाहिए, तब कहीं यह विनाश रुक पाएगा। देश की आर्थिक प्रगति के हम कितने ही दावे क्यों न करें, पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं।

दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है, पर अरबों रुपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है, हम घर आई सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते। पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

जहरीला हुआ भूजल
आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सैनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रुपया खर्च कर चुके हैं। इसके बावजूद हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है, जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सब कुछ मालूम है, पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आई हो, वहां पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते चले जाएंगे। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान में सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।-विनीत नारायण

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