क्या आई.पी.एल. पर प्रतिबंध से महाराष्ट्र का ‘जल संकट’ हल हो जाएगा

Edited By ,Updated: 17 Apr, 2016 01:36 AM

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मई में होने वाले आई.पी.एल. मैचों को महाराष्ट्र से बाहर स्थानांतरित करने के बाम्बे हाईकोर्ट के आदेश का बी.सी. सी.आई. द्वारा अनुपालन किया जाता है

(वीरेन्द्र कपूर): मई में होने वाले आई.पी.एल. मैचों को महाराष्ट्र से बाहर स्थानांतरित करने के बाम्बे हाईकोर्ट के आदेश का बी.सी. सी.आई. द्वारा अनुपालन किया जाता है या नहीं अथवा क्या इसने राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट के आगे गुहार लगानी है-इसका फैसला बी.सी.सी.आई. ने खुद करना है। हम तो माननीय न्यायमूर्तियों के आदेश की तर्कहीन प्रतिक्रिया एवं मनमर्जीपूर्ण प्रकृति पर खफा हैं। इस आदेश में न तो किसी प्रकार के कानून का दामन थामा गया है और न ही ‘कॉमन सैंस’ प्रयुक्त की गई है।

 
यह बात तो ठीक है कि जनता के एक वर्ग ने इस बात पर बहुत खुशी मनाई है कि अदालत ने सार्वजनिक दुख-दर्द के प्रति संवेदना दिखाई है। लेकिन लातूर और महाराष्ट्र के अन्य भागों में जल संकट का सामना कर रहे लोगों के दुख-दर्द में यदि अदालत के इस आदेश से कोई कमी आती है तो हम चाहेंगे कि हमें इसके बारे में वे लोग अवगत अवश्य कराएं जो अदालत के आदेश पर जश्न मना रहे हैं। 
 
बेशक जल संकट वाले इलाकों में ‘जल रेल’ चलाने का मामला हो या सरकारी एजैंसियों एवं प्राइवेट पार्टियों द्वारा आनन-फानन में उठाए गए अन्य कदमों की बात हो-यह सारा कुछ 13 आई.पी.एल. मैचों को फटाफट राज्य से बाहर ले जाने के अदालत के तुगलकी फरमान के बिना भी हो सकता था। मराठवाड़ा क्षेत्र के लोग लंबे समय से सूखे के संकट का सामना कर रहे हैं और उनके पक्ष में खड़े होने के लिए हमें किसी के दबाव के आगे झुकने की जरूरत नहीं और न ही किसी विशेष विचारधारा के लोगों की कतार में खड़े होने की। 
 
परन्तु जब समस्या की जड़ और इसका इलाज कहीं और है तो आई.पी.एल. को दंडित करने से कोई उद्देश्य सिद्ध होने वाला नहीं। पूरे शुद्ध मन से और माननीय न्यायमूर्तियों के प्रति बिना किसी असम्मान की भावना के हमारा यह मानना है कि अदालत ने अपने अधिकारों की लक्ष्मण रेखा पार की है। 
 
जनहित याचिकाओं (पी.आई. एल.) का अपनी मनमर्जी के अनुसार आई.पी.एल. के मैचों पर प्रतिबंध लगाने के लिए दुरुपयोग नहीं किया जा सकता, खास तौर पर तब जबकि इस आदेश का सूखे के कारण पैदा हुए जल संकट की जटिल समस्या को हल करने में लेशमात्र भी योगदान नहीं होगा। इसकी बजाय यह एक गलत परम्परा स्थापित करेगा। 
 
उल्लेखनीय है कि पी.आई.एल. दायर करने वाले याचिकाकत्र्ताओं ने पहले ही माननीय न्यायमूर्तियों से अनुरोध किया है कि आई.पी.एल. मैचों में ‘चीयर लीडर्स’ की उपस्थिति पर प्रतिबंध लगाया जाए। इससे आगे भी वे पता नहीं क्या कुछ करवाना चाहेंगे? शायद वे उन महिलाओं के लिए ड्रैस कोड अनिवार्य कर देंगे, जो अपनी पसंदीदा आई.पी.एल. टीमों की हौसला अफजाई के लिए भारी संख्या में वहां पहुंचने के लिए प्रयास कर रही हैं? यदि ऐसा ही चलता रहा तो यह खतरा है कि पी.आई.एल. जैसा प्रशंसनीय संस्थान शायद खुद को ही कलंकित कर लेगा और इस प्रकार लोग एक संवेदनहीन कार्यपालिका के विरुद्ध न्यायपालिका के सचमुच सार्थक हस्तक्षेप के लाभों से वंचित हो जाएंगे। 
 
अब तक तो ‘प्रतीकवाद’ राजनीतिज्ञों का ही पसंदीदा खेल था, जो मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए इसका खुलकर प्रयोग करते थे। निर्धारित सेवाकाल वाले हाईकोर्ट के जजों द्वारा यह खेल खेला जाना बहुत ही खेद की बात है। एक जज के बारे में यह माना जाता है कि उसका कोई निर्धारित चुनाव क्षेत्र नहीं होता। उसने तो केवल संविधान पर और इससे प्रवाहित होने वाली अन्य सभी बातों पर पहरा देना होता है। शोर मचाने वाले टैलीविजन एंकरों या फिर अधिक से अधिक लोगों को खुश करने की भावनाओं का माननीय न्यायमूर्तियों के आधिकारिक कार्यक्षेत्र से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। 
 
इसके अलावा लाखों अन्य तरीके हैं जिनसे नियमित आधार पर पानी की बर्बादी होती है। उदाहरण के तौर पर गोल्फ मैदानों को पानी लगाना। हम हाईकोर्ट के अनेक जजों को जानते हैं, जो स्थानीय गोल्फ क्लबों के स्थायी सदस्य बनने वाले प्रथम लोगों में शामिल हैं और जब भी उन्हें अपने अदालती कामों से फुर्सत होती है तो वे गोल्फ खेलने का मजा लेते हैं। क्या गोल्फ कोर्सों पर खेलने वाले हाईकोर्टों के माननीय जज  लातूर के पानी को तरस रहे लोगों के साथ हमदर्दी प्रकट करने के नाम पर तब तक गोल्फ न खेलने की कसम खाएंगे, जब तक जल संकट का स्थायी हल नहीं ढूंढ लिया जाता?
 
और हमारा यह इशारा केवल मुम्बई हाईकोर्ट के जजों तक ही सीमित नहीं है बल्कि अन्य सभी स्थानों पर सुशोभित उच्च न्यायपालिका के सभी सदस्यों की ओर लक्षित है। हम चाहते हैं कि वे भी न्यायमूर्ति वी.एम. कणादे एवं न्यायमूर्ति एम.एस. कार्णिक के विवादित फैसलों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करें। 
 
दूसरी बात यह कि हमारे इन माननीयों ने बी.सी.सी.आई.-आई.पी.एल. को शिक्षा दी है कि वे लातूर के पानी के लिए तरस रहे लोगों के कल्याण हेतु वित्तीय योगदान करें। इस मामले में भी यह कितना अच्छा होगा कि यदि हमारे माननीय जज भी इस नेक उद्देश्य के लिए अपनी ओर से  योगदान का उदाहरण प्रस्तुत  करें। 
 
आखिर संकट के मोह में फंसे अपने साथी  नागरिकों  की  सुध लेना हम सभी की जिम्मेदारी है और हमें अपनी अधिकृत एवं प्राइवेट क्षमता में वह सब कुछ करना चाहिए, जो हम कर सकते हैं। हाईकोर्ट के उच्च सम्मानित मंच से आदेश जारी करने वाले जजों से हम आशा करते हैं कि वे महाराष्ट्र के पानी की कमी से जूझ रहे लोगों के दुख दूर करने के लिए अपनी निजी हैसियत में भी कुछ करेंगे। वैसे एक  सवाल पूछा जाना चाहिए कि लातूर तो बहुत लंबे समय से जल संकट का शिकार है, ऐसे में मुम्बई में विश्व कप के 20-20 मैच करवाना कहां तक सही था और आई.पी.एल. के मैच का आयोजन किस प्रकार गलत है?
 
इसी बीच यह मानना भी गलत होगा कि केवल उच्च न्यायपालिका के सदस्यों के सीने में ही संवेदनशील आत्मा होती है। भारतीयों का सामूहिक अंत:करण पानी की किल्लत जैसी महामारी रूपी समस्याओं और जीवन के लिए पैदा हुई इसी प्रकार की अन्य चुनौतियों के प्रति सदा ही सजग रहा है। लेकिन इस समस्या का हल केवल सुर्खियां बटोरने के लिए ऊंचे पदों से आदेश और बयान जारी करने मात्र से नहीं होगा-खास तौर पर तब जबकि समस्याएं बहुत जटिल हों और इनका हल दीर्घकालिक रणनीतियों व भारी-भरकम वित्तीय निवेश के माध्यम से ढूंढे जाने की जरूरत हो। 
 
राजनीति और नौकरशाही में बहुत गहरी जड़ें  पकड़ चुके भ्रष्टाचार, कत्र्तव्यहीनता इत्यादि के होते हुए भी महाराष्ट्र के कुछ भागों में लोग लम्बे समय से पानी की कमी से जूझ रहे हैं तो इसका हल किए जाने के लिए बहुआयामी एवं व्यापक पहुंच अपनाने की जरूरत है, न कि आई.पी.एल. के मैच का स्थान मात्र बदलने की। वैसे आई.पी.एल. के मैच का स्थान बदलना शतरंज के मोहरे बदलने जैसा नहीं है। इन मैचों के लिए कई महीने पूर्व योजनाबंदी एवं तैयारियां शुरू होती हैं। 
 
पर्ची के बिना राहुल का भाषण
मुम्बई के प्रसिद्ध जावेरी बाजार में बोलते हुए राहुल गांधी ने कहा कि गैर रजत ज्यूलरी पर 1 प्रतिशत की एक्साइज ड्यूटी छोटे व्यापारियों के ‘कत्लेआम के प्रयास’ के तुल्य है। उनके बिल्कुल सटीक शब्द ये थे कि ‘‘यह एक्साइज ड्यूटी छोटे व्यापारियों एवं श्रमिकों को कत्ल करने का प्रयास है।’’ शायद समय आ गया है कि नेहरू-गांधी परिवार का यह फरजंद लिखित पर्ची के बिना भाषण करना बंद कर दे क्योंकि जब भी वह अपने बूते पर भाषण करने का प्रयास करता है तो हमेशा ही अपनी बेवकूफी का प्रदर्शन करता है। 
 
और अंत में 
प्रश्न : ज्वैलरों ने अचानक ही हड़ताल वापस क्यों ले ली, जबकि सरकार एक्साइज ड्यूटी लगाने के मामले में एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं?
उत्तर : ज्वैलरों को डर था कि कहीं बाबा रामदेव ज्वैलरी व्यापार के क्षेत्र में कदम न रख दें और देश भर में ‘पतंजलि ज्वैलरी स्टोर्स’ की एक शृंखला का सूत्रपात करके उन सभी का सफाया न कर दें। 
 
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