संसद का ‘आकार’ बढ़ाने से क्या हासिल होगा

Edited By ,Updated: 01 Aug, 2021 05:42 AM

what will be achieved by increasing the  size  of parliament

ट्रैजरी बैंचों से मेरे कान में फुसफुसाहट पड़ी कि राजग/भाजपा सरकार लोकसभा का आकार वर्तमान 543 से बढ़ाकर 1000 से अधिक करना चाहती है। एक अन्य फुसफुसाहट यह भी है कि राज्यों की परिषदों का भी विस्तार किया जाएगा। य

ट्रैजरी बैंचों से मेरे कान में फुसफुसाहट पड़ी कि राजग/भाजपा सरकार लोकसभा का आकार वर्तमान 543 से बढ़ाकर 1000 से अधिक करना चाहती है। एक अन्य फुसफुसाहट यह भी है कि राज्यों की परिषदों का भी विस्तार किया जाएगा। यह संकेत निर्माणाधीन नए संसद भवन से भी मिलता है जिसमें दोनों सदनों तथा राज्यों की परिषद के लिए बड़े चैंबर तैयार किए जा रहे हैं। दोनों सदनों के नए चैंबरों में कम से कम लोकसभा में 888 सांसदों तथा राज्य सभा में 384 सांसदों के बैठने की क्षमता है। हालांकि संयुक्त सत्र की संभावना के अंतर्गत लोकसभा के कक्ष को 1224 सदस्यों के बैठने के लिए तैयार किया जा रहा है। संसद के आकार में विस्तार का विचार वास्तव में नया नहीं है। अप्रैल 2017 में प्रणब मुखर्जी ने संसद की सं या बढ़ाने के लिए सार्वजनिक तौर पर जोरदार अभियान चलाया था। 

तत्कालीन राष्ट्रपति का विचार था कि ‘संवैधानिक कानून 1976 (42वां संशोधन) 1971 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या के आंकड़े का पुनर्गठन करने पर रोक लगाता है। इसका (संवैधानिक 84वां संशोधन) 2001 के द्वारा 2026 तक विस्तार किया गया है। परिणामस्वरूप लोकसभा आज 1971 की जनगणना के जनसं या आंकड़े का ही प्रतिनिधित्व करती है जबकि हाल के दशकों के दौरान हमारी जनसं या में कई गुणा वृद्धि हो चुकी है। इससे एक असंगत स्थिति पैदा हो गई है। जबकि आज भारत में 80 करोड़ से अधिक मतदाता हैं तथा 543 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र 1.28 अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।’ एक लोकसभा सदस्य 16-18 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जिससे उसे चुनने वालों के संपर्क में रहने की आशा कैसे की जा सकती है? 

उन्होंने पूरी भावना के साथ तर्क दिया है कि ‘तब से जनसंख्या दुगुनी से भी अधिक हो चुकी है तथा डीलिमिटेशन अभ्यास पर लगी रोक हटाने का ‘जोरदार मामला’ बनता है। आदर्श रूप से इसे 1000 तक बढ़ा देना चाहिए। हमें रचनात्मक रूप से सोचने की जरूरत है न कि बिना किसी आधार के बहाने बनाने की। यदि ब्रिटिश पार्लियामैंट के 650 सदस्य हो सकते हैं, कनाडाई संसद के 443 तथा अमरीकी कांग्रेस 535 सदस्यों को समाहित कर सकती है तो भारतीय संसद ऐसा क्यों नहीं कर सकती?’ क्या संख्या एकमात्र चुनौती है जिसका भारतीय संसद तथा विधायिकाएं सामना कर रही हैं? इसका उत्तर है न। संसद को विश्वसनीयता के एक गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा है। यह दशकों से कानून की बजाय अपवादों के साथ काम कर रही है। 

राजग/भाजपा ने एक काफी नीची सीमा निर्धारित कर दी है जब 28 अगस्त, 2012 को राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेतली ने एक हस्ताक्षरित लेख में तर्क दिया था कि ‘यदि संसदीय जवाबदेही पलट दी जाती है तथा चर्चा का मकसद महज संसदीय जवाबदेही को ढांपना है तो यह विपक्ष की एक तार्किक युक्ति है।’ उन्होंने 22 अगस्त 2012 को कहा था कि ‘हमें चर्चा में रुचि नहीं है। चर्चा में क्या रखा है?’ उनका ऐसा कहना एक ताॢकक संसदीय युक्ति है। इन शब्दों ने उस चीज के लिए एक मंच तैयार किया जिसका अनुसरण गत 9 वर्षों से किया जा रहा है। सरकार तथा विपक्ष दोनों को झगड़े का निपटारा करने के लिए एक व्यवस्था  खोजनी चाहिए। शाम 6 बजे सरकार का कार्य समाप्त होने के बाद प्रतिदिन अगले 3 घंटे किसी विषय पर चर्चा को समॢपत होने चाहिएं। इससे संसद की कार्रवाई सुनिश्चित होगी। इसकी विश्वसनीयता बहाल करने के लिए यह दूरगामी कदम होगा। 

संविधान की 10वीं अनुसूची भी यह कहती है कि दल-बदल विरोधी कानून में आवश्यक तौर पर संशोधन किया जाए। जैसा कि मैंने अपने एक निजी सदस्य विधेयक में तर्क दिया था कि इसकी कठोरताएं केवल उन उपकरणों तक सीमित रखी जाएं जो सरकार की स्थिरता को प्रभावित करती हैं। जैसे कि अविश्वास प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव, धन विधेयक अथवा वित्तीय मामले बाकी का वैधानिक स्थान खाली रखा जाना चाहिए। लोकसभा तथा राज्यसभा की सं या विस्तार की बात करें तो इसे नैशनल पीपुल्स कांग्रेस ऑफ चाइना में बदल कर कोई मकसद हल नहीं होगा। लोकसभा का आकार बढ़ाना केवल कार्यकारिणी को मजबूत करने तथा विधायिका को अनावश्यक बनाने की एक चाल है। 

संसद का कार्य देश के लिए कानून बनाना है। लोकसभा का आकार बढ़ाना इसे आज के मुकाबले में कहीं अधिक बोझिल तथा बेकार बना देगा। इससे भी अधिक संभावित विस्तार से संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों की सं या बढ़ कर 1200 हो जाएगी। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक खोने वाला तमिलनाडु होगा जिसकी संसद में तुलनात्मक हिस्सेदारी वर्तमान में 7.2 से कम होकर 6.4 प्रतिशत, केरल की 3.7 से 2.9 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश की 4.6 से 4.3 प्रतिशत तथा ओडिशा की 3.9 से 3.6 प्रतिशत रह जाएगी। उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी वर्तमान में 14.7 प्रतिशत से बढ़ कर 16 प्रतिशत, बिहार की 7.4 से 7.8 प्रतिशत, मध्यप्रदेश की 5.3 से 5.7 प्रतिशत तथा महाराष्ट्र की 8.8 से 9.7 प्रतिशत हो जाएगी। इससे उत्तर-दक्षिण विभाजन और भी अधिक हो जाएगा।-मनीष तिवारी
 

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