Edited By ,Updated: 21 Feb, 2015 08:37 AM
सत्संग में ज्ञान में, कर्मशीलता में रुचि होना, कर्मयोगी होना, ज्ञान योगी होना, ये धन हैं जीवन के। धर्मवीर-ज्ञानवीर-शूरवीर-दानवीर होना, यह सब धन हैं।
सत्संग में ज्ञान में, कर्मशीलता में रुचि होना, कर्मयोगी होना, ज्ञान योगी होना, ये धन हैं जीवन के। धर्मवीर-ज्ञानवीर-शूरवीर-दानवीर होना, यह सब धन हैं। इन धनों को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम ज्ञान है।
भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं, संसार में यद्यपि सभी उत्तम हैं, परन्तु मेरे लिए सबसे उत्तम मेरा ही रूप है, मेरे स्वरूप के अनुसार जो ज्ञान से युक्त है, उसके अंतर में मैं ही उतरा हूं। जो भी श्रद्धा युक्त होकर नाम जपने के लिए समय निकालता है वह उत्तम है परन्तु ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है। कृष्ण जगद्गुरु हैं, परमात्मा के लिए समय निकालने वाला, श्रद्धा से भजन करने वाला उत्तम है लेकिन ज्ञानी तो साक्षात् ब्रह्मा का स्वरूप है।
भगवान कहते हैं, ज्ञानी मेरे ही स्वरूप वाला हो सकता है। भगवान को ज्ञान वाला व्यक्ति प्रिय है। ज्ञानी व्यक्तियों का जीवन खुशबू की तरह आज भी महक रहा है, यद्यपि उनका शरीर दुनिया में नहीं है, मगर वे लोग अद्भुत थे।
महान पुरुष किसी एक देश, जाति, वर्ग के नहीं हैं, उनको सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता। कैद किया तो उनकी सुगंध, सुगंध नहीं। वह सारी दुनिया की सम्पत्ति हैं, दायरे में बांधने के लिए नहीं हैं। दूसरों के दरवाजे को ठकठकाने की आदत मत डालो, खुद परिश्रम करना सीखो। तुम्हारा खजाना तुम्हारे भीतर है।
कन्फ्यूशियस ने कहा, सागर तट पर बिखरी अनेक शिलाओं में एक तुम हो, अपने अंदर वह चमक पैदा करो जो हीरे में हुआ करती है, जिन्होंने महापुरुषों के ज्ञान-धन को सुरक्षित रखा और आज वह ज्ञान मानव-मात्र की सम्पत्ति बन गया। मीरा गाती रही, पुरन्दरदास गाते रहे। पुरन्दरदास ने कहा मिट्टी का घड़ा, मिट्टी का तन, मगर पकने पर वह घड़ा मिट्टी नहीं रह जाता, मिट्टी से बने इंसान तू भी परमात्मा के प्यार में अपने को पका, फिर तू मिट्टी का नहीं रह जाएगा। उन्होंने परमात्मा की
सम्पदा बार-बार लुुटाई जो मनुष्य मात्रा की सम्पत्ति बन गई।