जैन धर्म में चातुर्मास: धार्मिक चेतना और सामाजिक समरसता का प्रतीक

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Jul, 2023 10:39 AM

chaturmas jain

जैन धर्म में चातुर्मास की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। यह भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक और तब से लेकर अब तक

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Chaturmas jain: जैन धर्म में चातुर्मास की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। यह भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक और तब से लेकर अब तक अनवरत रूप से चली आ रही है। चातुर्मास का अर्थ है जैन साधु-साध्वियों का चार मास के लिए एक निर्दिष्ट स्थान पर ठहरना। चातुर्मास का आरंभ वर्षा ऋतु में होता है, इसलिए इसे वर्षा वास भी कहा जाता है। वर्षा के कारण लगभग सभी मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और जीव-जंतुओं की उत्पत्ति भी बढ़ जाती है। अत: जीवों की रक्षा तथा संयम-साधना के लिए चार मास तक जैन श्रमण-श्रमणियों के लिए एक ही स्थान पर ठहरने का शास्त्रीय विधान है। ‘ठाणांग सूत्र’ (जैनागम) में कहा गया है कि अपवाद स्वरूप निम्नलिखित आठ कारणों से जैन श्रमण-श्रमणियां चातुर्मास में विहार कर अन्यत्र भी जा सकती हैं :

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(1) अत्यंत भय के कारण, (2) दुर्भिक्ष के कारण, (3) राज पुरुष की क्रूरता के कारण, (4) बाढ़ आदि आने के कारण, (5) विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के कारण, (6) भोजन आदि न मिलने के कारण, (7) आचार्य या उपाध्याय के शरीर शांत होने के कारण तथा  (8) किसी साधु अथवा साध्वी की सेवा के कारण।

धार्मिक चेतना : जैन धर्म में चातुर्मास धार्मिक चेतना का प्रतीक है। धार्मिक दृष्टि से हमारे साधु-साध्वियां स्वयं धर्माराधन करते हैं और श्रावक-श्राविकाओं को भी इसकी प्रेरणा देते हैं। इसमें स्वाध्याय, ध्यान, तप, जप तथा विशेष धार्मिक अनुष्ठानों को प्रश्रय दिया जाता है। धार्मिक चेतना से अभिप्राय केवल बाध्य क्रियाओं से नहीं, अपितु सर्वधर्म समन्वय और धार्मिक सहिष्णुता तथा अपने मूल्यांकन से है। अपना मूल्यांकन ही धार्मिक चेतना का मूल है।

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सामाजिक समरसता : सामाजिक समरसता की दृष्टि से भी चातुर्मास की विशिष्टता कम नहीं है। समाज में एकता स्थापित करने तथा परस्पर भाईचारे की भावना को बनाए रखते हुए साधु-साध्वियां हमारे समाज के सजग प्रहरी हैं।

वे समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं। वे लोगों को जीवन-यापन करने की कला सिखा सकते हैं। सामाजिक कुरीतियों का निराकरण कर सकते हैं। हमारे चारों ओर दुख-दरिद्रता, विषमता, भूख और अभावग्रस्त मानवता कराह रही है। उसके प्रति संवेदनशील और कर्त्तव्य परायण होने की आवश्यकता है।

हमारे साधु-साध्वियां इधर अधिक मनोयोग लगा सकते हैं और इसे धर्म का प्रमुख अंग मानकर जनमानस को इस ओर कार्य करने की प्रेरणा भी कर सकते हैं। इसी से उनके चातुर्मासों की सार्थकता सिद्ध होगी।

सम्वत्सरी पर्व : चातुर्मास में ही महापर्व सम्वत्सरी का प्रादुर्भाव होता है। यह जैन धर्म का अलौकिक पर्व है। इसे क्षमापना पर्व भी कहते हैं।

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यह परस्पर वैमनस्य को दूर करने का पर्व है। चातुर्मास में सामाजिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण पर्व है। जैन लोग इस दिन परस्पर मनमुटाव दूर करने के लिए क्षमायाचना करते हैं। इस पर्व को विश्वव्यापी सद्भावना का प्रतीक कहा जा सकता है।

भगवान महावीर निर्वाण कल्याणक : चातुर्मास में दीपावली के दिन भगवान महावीर का निर्वाण कल्याणक (मुक्ति दिवस) भी आता है। इसी रात्रि गौतम स्वामी को केवल ज्ञान (आत्म बोध) की प्राप्ति हुई थी। 

 

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