शास्त्र ज्ञान: इन 6 को मारने से नहीं लगता पाप

Edited By Jyoti,Updated: 21 Jun, 2020 03:59 PM

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पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रन्सबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव॥36॥ अनुवाद : यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अत: यह उचित नहीं होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों...

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पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन:
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रन्सबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव॥36॥

अनुवाद : यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अत: यह उचित नहीं होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण! इससे हमें क्या लाभ होगा? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं?
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तात्पर्य : वैदिक आदेशानुसार आततायी छ: प्रकार के होते हैं (1) विष देने वाला, (2) घर में अग्नि लगाने वाला, (3) घातक हथियार से आक्रमण करने वाला (4) धन लूटने वाला (5) दूसरे की भूमि हड़पने वाला तथा (6) पराई स्त्री का अपहरण करने वाला।

ऐसे आततायियों का तुरंत वध कर देना चाहिए क्योंकि उनके वध से कोई पाप नहीं लगता। उनका इस तरह वध किसी सामान्य व्यक्ति को शोभा दे सकता है किन्तु अर्जुन कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। वह स्वभाव से साधु है अत: वह उनके साथ साधुवत व्यवहार करना चाहते थे किन्तु इस प्रकार का व्यवहार क्षत्रिय के लिए उपयुक्त नहीं है। यद्यपि राज्य के प्रशासन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को साधु प्रकृति का होना चाहिए किन्तु उसे कायर नहीं होना चाहिए।
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अर्जुन के प्रसंग में विशिष्टï प्रकार के आततायियों से भेंट होती है-ये हैं उनके आचार्य, मित्र, पुत्र, पौत्र इत्यादि। इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि उनके प्रति वह सामान्य आततायियों जैसा कटु व्यवहार न करें। इसके अतिरिक्त साधु पुरुषों को तो क्षमा करने की सलाह दी जाती है इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि राजनीतिक कारणों से स्वजनों का वध करने की अपेक्षा धर्म तथा सदाचार की दृष्टिï से उन्हें क्षमा कर देना श्रेयस्कर होगा।

अत: क्षणिक शारीरिक सुख के लिए इस तरह वध करना लाभप्रद नहीं होगा। अंतत: जब सारा राज्य तथा उससे प्राप्त सुख स्थायी नहीं हैं तो फिर अपने स्वजनों को मार कर वह अपने ही जीवन तथा शाश्वत मुक्ति को संकट में क्यों डाले? वह कृष्ण को यह बताना चाह रहे थे कि वह उन्हें ऐसा काम करने के लिए प्रेरित न करें, जिससे अनिष्टï हो किन्तु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो कदापि नहीं।    
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