Edited By ,Updated: 30 Mar, 2017 01:38 PM
एक युवा ब्रह्मचारी ने दुनिया के कई देशों में जाकर अनेक कलाएं सीखीं। एक देश में उसने धनुष-बाण बनाने और चलाने की कला सीखी। कुछ दिनों के बाद वह दूसरे देश की
एक युवा ब्रह्मचारी ने दुनिया के कई देशों में जाकर अनेक कलाएं सीखीं। एक देश में उसने धनुष-बाण बनाने और चलाने की कला सीखी। कुछ दिनों के बाद वह दूसरे देश की यात्रा पर गया। वहां उसने जहाज बनाने की कला सीखी क्योंकि वहां जहाज बनाए जाते थे। फिर वह किसी तीसरे देश में गया और कई ऐसे लोगों के संपर्क में आया, जो घर बनाने का काम करते थे। इस प्रकार वह 16 देशों में गया और कई कलाओं का ज्ञान अर्जित करके लौटा।
अपने घर वापस आकर वह अहंकार में भरकर लोगों से पूछने लगा, ‘‘इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई गुणी व्यक्ति है?’’
लोग हैरत से उसे देखते, मगर चुप रहते। धीरे-धीरे यह बात भगवान बुद्ध तक भी पहुंची। बुद्ध उसे जानते थे। वह उसकी प्रतिभा से भी परिचित थे। वह इस बात से चिंतित हो गए कि कहीं उसका अभिमान उसका नाश न कर दे। एक दिन वह एक भिखारी का रूप धरकर हाथ में भिक्षापात्र लिए उसके सामने गए।
ब्रह्मचारी ने बड़े अभिमान से पूछा, ‘‘कौन हो तुम?’’
बुद्ध बोले, ‘‘मैं आत्मविजय का पथिक हूं।’’
ब्रह्मचारी ने उनके कहे शब्दों का अर्थ जानना चाहा तो वह बोले, ‘‘एक मामूली हथियार निर्माता भी बाण बना लेता है, नौ-चालक जहाज पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता घर भी बना लेता है। केवल ज्ञान से ही कुछ नहीं होने वाला है, असल उपलब्धि है निर्मल मन। अगर मन पवित्र नहीं हुआ तो सारा ज्ञान व्यर्थ है। अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही ईश्वर को पा सकता है।’’
यह सुनकर ब्रह्मचारी को अपनी भूल का अहसास हो गया। तात्पर्य यह कि अहंकार बुद्धि
को नष्ट कर देता है, इसलिए अहंकार को अपने मन पर हावी नहीं होने देना चाहिए।