श्रीराम ने बताया, इन 3 की सेवा देगी हर खुशी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 13 Apr, 2018 12:57 PM

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आज वृद्धाश्रमों की बढ़ती हुई संख्या और तीर्थस्थानों में उम्रदराज भिखारियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वृद्ध माता-पिता की दशा कितनी दयनीय हो गई है। कितनी लज्जा की बात है कि जिन माता-पिता ने अपनी संतान के लिए अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए...

आज वृद्धाश्रमों की बढ़ती हुई संख्या और तीर्थस्थानों में उम्रदराज भिखारियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वृद्ध माता-पिता की दशा कितनी दयनीय हो गई है। कितनी लज्जा की बात है कि जिन माता-पिता ने अपनी संतान के लिए अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुए उन्हें पढ़ाया, सभी सुविधाएं उपलब्ध कराईं, स्वयं दुख सहते हुए संतान को आगे बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयत्न किए, वही संतान जीवन के अंतिम समय में उनको छोड़कर दूर रह रही है। युवा यह नहीं जानते कि एक दिन वे भी असहाय वृद्ध होंगे तब वे भी क्या अपनी संतान से इसी व्यवहार की चाह रखेंगे जैसा कि आज वे स्वयं अपने माता-पिता के साथ कर रहे हैं?


आज अधिकांश परिवारों में वृद्ध माता-पिता के जीवित रहने पर उनकी सेवा और चिकित्सा तो दूर, उनके साथ उपेक्षापूर्ण-पीड़ादायक व्यवहार किया जाता है। इतना ही नहीं, उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है। यह उपेक्षापूर्ण व निष्ठुर व्यवहार सर्वथा अनुचित है। 


माता-पिता की सेवा संतान का परम कर्तव्य है। ‘मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव’। 


अर्थात माता-पिता और आचार्य को देव मानो। 


वृद्धजनों की सेवा के संबंध में यह श्लोक महत्वपूर्ण है : अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन: चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥


वृद्धजनों को सर्वदा अभिवादन अर्थात सादर प्रणाम, नमस्कार, चरण स्पर्श तथा उनकी नित्य सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल-ये चारों बढ़ते हैं। इस श्लोक का आशय स्पष्ट है कि हमें सदैव अपने माता-पिता, परिवार के ज्येष्ठ सदस्यों एवं आचार्यों की सेवा सुश्रुषा, परिचर्या का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वे सदैव प्रसन्न रहेंगे तभी हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त होगा और हम उन्नति कर सकते हैं। माता-पिता और गुरु की सेवा एवं सम्मान करने पर दीर्घायुभव, आयुष्मान भव, खुश रहो आदि आशीर्वाद प्राप्त होते हैं। वृद्धजनों का आशीर्वाद हृदय से मिलता है। 


कहा गया है कि जिस तरह वनस्पतियों में सूर्य से जीवन प्राप्त होता है, वैसे ही माता-पिता आदि वृद्धजनों के आशीर्वाद से जीवन संचारित होता है। इसलिए वृद्ध माता-पिता की तन-मन-धन से सेवा करते हुए आशीर्वाद लेना चाहिए। उन्हें सुख देना ही सुखी रहने का सर्वोत्तम उपाय है। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है-मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम सीता जी से कहते हैं कि हे सीते! माता-पिता और गुरु ये तीनों प्रत्यक्ष देवता हैं, इनकी अवहेलना अथवा उपेक्षा करके अप्रत्यक्ष देवता की आराधना कैसे हो सकती हैं?


माता-पिता के समान पवित्र इस संसार में दूसरा कोई भी नहीं है। जो व्यक्ति अपने माता-पिता और आचार्य का अपमान करता है, वह यमराज के वश में पड़कर उस पाप का फल भोगता है।


धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार भीष्म पितामह से पूछा, धर्म का मार्ग क्या है? भीष्म पितामह ने कहा-समस्त धर्मों से उत्तम फल देने वाली माता-पिता और गुरु की भक्ति है। मैं सब प्रकार की पूजा से इनकी सेवा को बड़ा मानता हूं। 


माता-पिता और गुरु मनुष्यों के द्वारा सर्वदा पूजनीय होते हैं। जिसके द्वारा इन तीनों का समुचित आदर नहीं किया जाता है, उसकी समस्त क्रियाएं असफल ही होती हैं। 
पदम पुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जिसकी सेवा और सद्गुणों से माता-पिता संतुष्ट रहते हैं, उस संतान को प्रतिदिन गंगा-स्नान का फल मिलता है। माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है। अत: सभी प्रकार से माता-पिता का पूजन अर्थात उनकी सेवा करनी चाहिए।


आज संतान माता-पिता की संपत्ति पर तो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती है और अपने जन्मदाता पालक को बोझ मान रही है। यह सोच अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। जिन माता-पिता ने अपने जीवन में पुत्रों-पुत्रियों का पालन पोषण, शिक्षा, विवाह आदि किया, तन-मन-धन से उनको आगे बढऩे का अवसर दिया, वे अब मिल कर भी माता-पिता की सेवा करने से मुंह मोड़ रहे हैं। इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। वे यह नहीं समझते कि ईश्वर सब कुछ देखता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलता  है। सभी धार्मिक ग्रंथों का सार यही है कि वृद्ध माता-पिता को प्रत्यक्ष देवता मानकर सभी प्रकार से उनकी सेवा करो और जीवन में सुखी रहने का आशीर्वाद प्राप्त करो। माता-पिता एवं परिवार की दुर्गति से रक्षा करने वाला ही वास्तव में संतान कहलाने का अधिकारी है। अत: वृद्ध माता-पिता की इच्छा का सम्मान करें। अपनी व्यस्त दिनचर्या में भी उनके साथ बातचीत करें। उनके स्वास्थ्य, सुपाच्य आहार आदि के विषय में चर्चा करते रहें। उनके प्रति सदैव सम्मान रखें। 


पारिवारिक समस्याओं पर उनसे परामर्श लेने में संकोच न करें। धार्मिक स्थान, मंदिर, तीर्थ स्थान आदि पर जाने के लिए पूछते रहें। कभी उनको अकेला न छोड़ें। उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखें। कहने का तात्पर्य यह है कि हर प्रकार से माता-पिता की सेवा का ध्यान रखें और उनको प्रसन्न रखने का प्रयास करें।
 

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