Edited By Niyati Bhandari,Updated: 01 Jun, 2019 11:30 AM
एक दिन स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के साथ बैठे थे और उनसे ज्ञान की बातें सुन रहे थे। उसी दौरान विवेकानंद उनसे बोले, ‘‘गुरु जी, मेरे मन में तपस्या करने की चाहत जगी है।
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एक दिन स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के साथ बैठे थे और उनसे ज्ञान की बातें सुन रहे थे। उसी दौरान विवेकानंद उनसे बोले, ‘‘गुरु जी, मेरे मन में तपस्या करने की चाहत जगी है। मैं तपस्या किसी साधारण स्थल पर न करके हिमालय की शांत कंदराओं में करना चाहता हूं। वहां पर न तो किसी तरह की विघ्न-बाधाएं आएंगी और न ही मेरी एकाग्रता भंग होगी। इस बारे में आपका क्या कहना है?’’
विवेकानंद की बात सुनकर रामकृष्ण परमहंस मुस्कुराते हुए बोले, ‘‘पुत्र, जब तुमने निश्चय कर ही लिया है तो मेरी राय क्यों पूछ रहे हो?’’
यह सुनकर स्वामी विवेकानंद बोले, ‘‘गुरु जी, अभी मेरे जीवन की शुरूआत है। मैं अनेक फैसले गलत भी ले सकता हूं इसलिए आपसे मार्गदर्शन चाहता हूं।’’
विवेकानंद की यह बात सुनकर रामकृष्ण परमहंस बोले, ‘‘पुत्र, यदि मेरा मार्गदर्शन चाहते हो तो वह मैं अवश्य दूंगा। इस बारे में मैं यह कहूंगा कि हमारे यहां के लोग भूख से तड़प रहे हैं, रोगों से ग्रस्त हैं। चारों तरफ अशिक्षा एवं अज्ञान फैला हुआ है। चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में तपस्या और समाधि में आनंद के साथ निमग्न रहो, क्या इसे तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?’’
रामकृष्ण परमहंस के इन शब्दों ने स्वामी विवेकानंद की आत्मा को झकझोर डाला। उन्हें समझ आ गया कि स्वामी जी उन्हें क्या समझाना चाहते हैं। उन्होंने उसी समय संकल्प लिया कि वह अपना जीवन गरीबों की सेवा करने एवं शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर अज्ञानता को दूर करने में लगाएंगे। इसके बाद वह अपने गुरु का आशीर्वाद ले, उन्हें प्रणाम कर वहां से चले गए लेकिन इस बात पर उनके मन की दुविधा उस दिन हमेशा के लिए निकल गई। उसके बाद से वह आजीवन सबको यही समझाते रहे कि सबसे बड़ा कर्म और सबसे बड़ा धर्म है एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य की मदद करना।