जगद्गुरु शंकराचार्य के बारे में ये बात नहीं जानते होंगे आप !

Edited By Lata,Updated: 09 May, 2019 02:25 PM

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हमारे शास्त्रों में जगद्गुरु शंकराचार्य जी के बारे में बहुत सी बातों का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि इन्होंने अपनी 2 वर्ष की आयु में ही वेदों,

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हमारे शास्त्रों में जगद्गुरु शंकराचार्य जी के बारे में बहुत सी बातों का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि इन्होंने अपनी 2 वर्ष की आयु में ही वेदों, उपनिषद, रामायण, महाभारत को याद कर लिया था और 7 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया था। ये एक ऐसे संन्यासी हुए जिन्होंने अपनी मां का दाह संस्कार किया था। इनके बचपन का नाम शंकर था और बाद में इन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम से जाना गया। आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार के लिए देश के चारों कोनों में मठों की स्थापना की थी जिसे आज शंकराचार्य पीठ कहा जाता है। आज दिनांक 09 मई 2019 को गुरु शंकराचार्य की जयंती के रूप में मनाया जाएगा। तो आइए आगे जानते हैं इनके जीवन से जुड़ी कुछ रेचक बातें।
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एक ब्राह्मण दंपति के विवाह होने के की सालों तक कोई बच्चा नहीं हुआ। संताल प्राप्ति के लिए वह हर रोज शिव की उपासना किया करते थे। एक दिन उनके तप से खुश होकर भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने संतान की कामना की जो दीर्घायु भी हो और उसकी प्रसिद्धि दूर दूर तक फैले। लेकिन इस पर भोलेनाथ ने कहा कि तुम्हारी संतान दीर्घायु हो सकती है या फिर सर्वज्ञ, जो दीर्घायु होगा वो सर्वज्ञ नहीं होगा और अगर सर्वज्ञ संतान चाहते हो तो वह दीर्घायु नहीं होगी। तब ब्राह्मण दंपति ने वरदान के रूप में दीर्घायु की बजाय सर्वज्ञ संतान की कामना की। इसके बाद भगवान शिव ने खुद बालक के रूप में उनके घर में जन्म लिया। शिव से प्राप्त हुई संतान के कारण ही उसका नाम शंकर रख दिया। शंकराचार्य बचपन से प्रतिभा सम्पन्न बालक थे। जब वह मात्र तीन साल के थे तब पिता का देहांत हो गया। तीन साल की उम्र में ही उन्हें मलयालम का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। 
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बचपन से ही उनका ध्यान संन्यासी बनने की तरफ था। उनकी माता अपने एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रही थी। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने मां से कहा कि मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे दो नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान कर दी। 

उन्हें बहुत ही कम उम्र में वेदों का पूरा ज्ञान हो गया था और 12 वर्ष की उम्र में शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। 16 वर्ष की अवस्था में 100 से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर चुके थे। बाद में माता की आज्ञा से वैराग्य धारण कर लिया था। मात्र 32 साल की उम्र में केदारनाथ में उनकी मृत्यु हो गई। 

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