जैनाचार्य हीर विजय सूरि को अकबर ने जगत गुरु की पदवी से किया था अलंकृत

Edited By Updated: 16 Jun, 2025 06:00 AM

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भारत में अकबर सभी मुस्लिम शासकों से अधिक धर्म सहिष्णु था, सभी धर्मों का सम्मान करता था। मुगलकालीन भारत नामक पुस्तक के लेखक डा. श्रीवास्तव का मत है कि अकबर 20 वर्ष की आयु में ही जीवन और मृत्यु की समस्याओं पर विचार करने लग गया था। उसकी उदारता का...

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भारत में अकबर सभी मुस्लिम शासकों से अधिक धर्म सहिष्णु था, सभी धर्मों का सम्मान करता था। मुगलकालीन भारत नामक पुस्तक के लेखक डा. श्रीवास्तव का मत है कि अकबर 20 वर्ष की आयु में ही जीवन और मृत्यु की समस्याओं पर विचार करने लग गया था। उसकी उदारता का उल्लेख ‘आइने अकबरी’ भाग 1 पृष्ठ 179 में स्पष्ट रूप से किया गया है, जिसमें लिखा है ‘सभी धर्मों में समझदार लोग होते हैं और वे स्वतंत्र विचारक भी होते हैं। जब सत्य सभी धर्मों में है तो यह समझना भूल है कि सच्चाई सिर्फ इस्लाम धर्म तक सीमित है।’

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अकबर ने धर्म के मर्म को जानने के लिए भारत के विभिन्न विद्वानों को आमंत्रित किया, जिनमें इस्लाम के हकीम अबुल फतह, सूफियों के मिर्जा सुलेमान, ईसाई धर्म के क्रिस्टोफर डि. वागा, फारसी के दस्तूर जी मेहर जी राणा और हिन्दू धर्म के पुरुषोत्तम और देवी प्रमुख थे।

इन सभी विद्वानों में अकबर को जैनाचार्य हीर विजय सूरि ने सबसे अधिक प्रभावित किया। आचार्य हीर विजय सूरि से अकबर की ऐतिहासिक भेंट के दो प्रमुख कारण थे। एक तो वह सुश्राविका चम्पा बाई जैन की दीर्घ तपस्या से प्रभावित हुआ और दूसरा, वह आचार्य हीर विजय सूरि से आध्यात्मिक चर्चा करना चाहता था।

1582 ई. में अकबर के निमंत्रण पर महान जैनाचार्य गुजरात से पद यात्रा कर आगरा पहुंचे। अकबर ने इनका अभूतपूर्व स्वागत किया। ऐसा प्रतीत होता था कि साक्षात कल्प वृक्ष किसी जिज्ञासु की चिर पोषित जिज्ञासा को शांत करने आ पहुंचा हो। आचार्य हीर विजय सूरि से अकबर ने एक जिज्ञासु की भांति धर्म-बोध प्राप्त किया। आचार्यश्री ने अकबर को जीवन की वास्तविकता, दया तथा त्यागमय जीवनयापन का प्रतिबोध दिया।

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अकबर उनके अगाध ज्ञान, गंभीर चिंतन तथा साधु स्वभाव से प्रभावित हुआ। उसने वर्ष में कुछ दिनों के लिए स्वयं मांसभक्षण बंद कर दिया, बहुत से बंदियों को छोड़ दिया और पशु-पक्षियों के वध पर रोक लगा दी, जिसका कठोरता से पालन किया गया। अकबर ने आचार्यश्री जी को ‘जगत गुरु’ की पदवी से अलंकृत किया। उसने आचार्यश्री को बहुमूल्य वस्तुएं भेंट कीं, परंतु उन्होंने यह कह कर लेने से इंकार कर दिया कि हम संत हैं, हमें इन वस्तुओं की आवश्यकता नहीं। अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने दरबार के उन सर्वोच्च 21 विद्वानों की सूची तैयार की थी, जिनके संबंध में यह माना जाता था कि वे दोनों लोकों के रहस्य जानते हैं। आचार्य हीर विजय सूरि को इस सूची में प्रमुखता दी गई।

इस भेंट के विवरण डा. श्रीवास्तव के प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ ‘मुगलकालीन भारत’, आचार्य बलदेव उपाध्याय के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’ में उपलब्ध हैं। आचार्य हीर विजय सूरि ने अकबर के दरबार में चिर स्थायी प्रभाव छोड़ा और जैन धर्म की प्रभावना की। जिन शासन की प्रभावना फैलाने वाले इस महान जैनाचार्य का देवलोक गमन सौराष्ट्र में 1595 ई. में हुआ।

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