Edited By Prachi Sharma,Updated: 03 Apr, 2024 10:19 AM
31 मई, 1899 का दिन था। गर्मी का प्रकोप अपने पूर्ण यौवन पर था। इसी दिन लखमी दास के घर एक पुत्र रत्न ने जन्म लिया। वीर माता श्रीमती लाल देवी को गर्व था अपने
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Lala Jagat Naryan: 31 मई, 1899 का दिन था। गर्मी का प्रकोप अपने पूर्ण यौवन पर था। इसी दिन लखमी दास के घर एक पुत्र रत्न ने जन्म लिया। वीर माता श्रीमती लाल देवी को गर्व था अपने नवजात पुत्र पर। वह कहा करतीं, ‘‘वह एक शेर है। मैंने एक शेरनी की तरह एक शेर को ही जन्म दिया है।’’
वस्तुत: इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया कि वह एक सिंह माता ही थीं, जिन्होंने अपनी कोख से नर-केसरी, पंजाब केसरी, जगत नारायण जैसे शेरदिल इंसान को जन्म दिया।
इस पुत्र जन्म पर पूरा परिवार खुशी से फूला नहीं समा रहा था और माता लाल देवी की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। माता-पिता को जन्म काल से ही उस बालक से बड़ी आशाएं व अपेक्षाएं थीं। इसी कारण बालक का नामकरण संस्कार ‘जगत नारायण’ नाम से हुआ। यह नाम रखते हुए संभवत: उनके मन में ऐसी ही कुछ आशाएं, अपेक्षाएं, संभावनाएं रही होंगी कि उनका पुत्र वस्तुत: ‘नर’ वेश में ‘नारायण’ ही सिद्ध हो और वास्तव में आगे चल कर हुआ भी ऐसा ही। उन्होंने अपने जीवन में नर सेवा को नारायण सेवा समझा और असहायों, अनाथों, दीन-दुखियों, बेबस व लाचार लोगों की सहायता की।
लाला लखमी दास व श्रीमती लाल देवी ने अपने इकलौते पुत्र के यथोचित लालन-पालन में कोई कसर नहीं रखी। बालक को खूब लाड़-प्यार मिला, पर इतना नहीं, जो उसे जिद्दी या उद्दंड बना दे। पिता लखमी दास स्वभाव से कठोर भी थे। बालक जगत नारायण उनसे डरते भी थे। जगत नारायण ने अपने माता-पिता को कभी प्रताडि़त करने या मार-पीट करने का अवसर नहीं दिया।
बालक के रूप में वह अन्य बालकों की तरह चपल व चंचल नहीं थे। वह अंतर्मुखी प्रवृत्ति के थे। उन्हें अपने बाल साथियों के साथ स्वयं राजा बन तथा उन्हें अपनी प्रजा बना कर खेलने का खेल सर्वाधिक प्रिय था। बचपन से ही ‘नेतृत्व’ का गुण उनमें विद्यमान था, तभी वह एक महान जन नायक बन कर उभरे। वह बचपन से ही अत्यंत सूझवान, बुद्धिमान व विचारवान थे। उनकी गंभीर प्रवृत्ति दूसरों के लिए एक आश्चर्य थी। जिस प्रकार माता जीजा बाई ने वीरता और बहादुरी की कहानियां सुना कर अपने पुत्र शिवाजी को ‘छत्रपति शिवाजी’ बनाया, उसी प्रकार माता लाल देवी ने भी बालक जगत नारायण को भारतीय इतिहास के प्रेरणादायी महापुरुषों की जीवन कथाएं सुना कर उनके मन में अच्छे संस्कारों का बीजारोपण किया।
जगत नारायण के जन्म के समय उनके पिता श्री लखमी दास बीकानेर में थानेदार थे। बालक के जन्म के साथ ही उन्हें लगा कि अब उन्हें कोई और व्यवसाय अपनाना चाहिए। चाहे इस व्यवसाय में दबदबा था, प्रतिष्ठा थी व अधिकार थे, परंतु उन्हें कहीं लगा कि विकसित होते बालक जगत नारायण के लिए थानेदार के रूप में शायद वह एक अच्छा अनुकरणीय आदर्श सिद्ध न हो सकें। अब उनमें देश प्रेम की भावना हिलोरे लेने लगी थीं। ब्रिटिश सरकार की नौकरी करते हुए उन्हें आत्म ग्लानि व अपराध बोध होने लगा था। कभी-कभी उन्हें यह देशद्रोह लगता था।
अंतत: उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया। बालक जगत नारायण के मन पर इस घटना ने अमिट प्रभाव छोड़ा और ‘आत्म-सम्मान’ व ‘आत्म गौरव’ की रक्षा हेतु वह किसी भी पद व सुविधा का त्याग करने से पीछे नहीं हटे। अपने पिताश्री के पदचिन्हों का ही उन्होंने अपने भावी जीवन में अनुसरण किया। पंजाब मंत्रिमंडल व कांग्रेस से त्यागपत्र आदि घटनाओं की जड़ें इसी घटना में देखी जा सकती हैं। लखमी दास 1900 में लायलपुर आ गए तथा वहां के एक प्रतिष्ठित वकील श्री बोध राज वोहरा के यहां नौकरी कर ली।
यहां जगत नारायण के बचपन की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। उनकी आयु लगभग 6 वर्ष की रही होगी, जब उन्हें अपने माता-पिता के साथ हरिद्वार जाने का अवसर मिला। वहां माता-पिता के साथ वह कुछ दिनों तक अपने पंडा (पुजारी) के घर ठहरे। वह पंडा अत्यंत धार्मिक व प्रबल देश भक्त था। जब जगत नारायण वापस जाने लगे तो पुजारी ने उन्हें उस समय के प्रसिद्ध व्यक्तियों के कुछ चित्र दिए। तब जगत नारायण इन महापुरुषों को पहचानने या जानने में सर्वथा असमर्थ थे।
घर आकर पिता लखमी दास ने एक चित्र दिखा कर उन्हें बताया कि वह नौजवान क्रांतिकारी खुदी राम बोस का है, जिन्होंने मात्र 16 वर्ष की आयु में ही भारत माता की स्वतंत्रता हेतु अपना जीवन बलिदान कर दिया था। दूसरे चित्र में ‘लाल, पाल व बाल’ थे- लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक व विपन चंद्र पाल। तीनों महान देशभक्त तथा भारत माता के वीर सपूत आजादी की लड़ाई तन, मन, धन से लड़ रहे थे।
पिता लखमी दास ने बालक जगत नारायण को यह बताया तथा समझाया कि किस प्रकार अंग्रेज सरकार देश भक्तों पर अत्याचार कर रही है। देश को लूट रही है तथा देश को आजादी की आवश्यकता है। फिर वह जगत नारायण को एक अन्य कमरे में ले गए तथा कुछ अन्य राष्ट्र भक्तों के चित्र दिखाए। इस सबका जगत नारायण के बाल मन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके मन में भी एक तड़प उठी, देश की स्वतंत्रता की।
चाहे वह उस समय इन देश भक्तों व राष्ट्र नायकों के योगदान व संघर्ष को भली-भांति समझ तो न पाएं हों, पर एक आधारशिला रखी जा चुकी थी, राष्ट्र भक्ति की, देश और समाज हेतु बलिदान व त्याग भावना की। यही वे संस्कार थे जो बीज के रूप में बोए गए थे। शैशव काल में अंकुरित व प्रस्फुटित हुए युवा काल में तथा पुष्पित व फलित हुए जीवन के संध्याकाल में। त्याग और बलिदान के इस पाठ ने ही उन्हें अमर शहीदों की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया।