अनोखी रस्म- बप्पा नए वाहनों को देते हैं आशीर्वाद

Edited By Jyoti,Updated: 27 Aug, 2019 01:41 PM

moti dungri ganesh temple in jaipur

जैसे कि आप सब जानते हैं 2 सिंतबर को गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाएगा। हिंदू धर्म के अन्य सभी त्यौहारों की ही तरह इसका भी अधिक महत्व है।

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जैसे कि आप सब जानते हैं 2 सिंतबर को गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाएगा। हिंदू धर्म के अन्य सभी त्यौहारों की ही तरह इसका भी अधिक महत्व है। बता दें ये पर्व भाद्रपद की अष्टमी तिथि यानि जन्माष्टमी के कुछ दिन बाद मनाया जाता है। शास्त्रों में अगर गणेश जी के बारे में किए उल्लेख पर दृष्टि से डालें तो ये भी श्री कृष्ण की ही तरह नटखट थे। गणेश उत्सव के इस खास मौके पर हम आपके लिए लाएं इनसे यानि नटखट गणेश जी से जुड़े मंदिर का इतिहास। तो आइए अधिक देर न करते हुए जानते हैं इस मंदिर के बारे में-
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हम बात कर रहे हैं मोती डूंगरी गणेश मंदिर की, जहां भगवान गणेश की बहुत ही सुंदर व मनमोहक प्रतिमा स्थापित हैं। इस मंदिर की खास बात ये हैं कि यहां इन्हें सिंदूर का चोला चढ़ाया जाता है। बता दें राजस्थान के जयपुर में स्थित ये मंदिर बप्पा के प्रमुख मंदिरों में से एक है। 

भगवान गणेश के इस मंदिर के से दर्शन करने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं और अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। परिसर के अंदर गणेश जी की दाहिनी सूंड वाले गणेश जी की विशाल प्रतिमा स्थापित है, जिस पर सिंदूर का चोला चढ़ाकर बप्पा का श्रृंगार किया जाता है।
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मंदिर से जुड़ी मान्यताओं के अनुसार जयपुर में मोती डूंगरी मंदिर में विराजित गणेश भगवान यहां के लोगों के अराध्य माने जाते हैं। मंदिर से जुड़ी प्रचलित परंपरा के अनुसार कोई भी व्यक्ति नया वाहन लेता है, तो उसे सबसे पहले मोती डूंगरी गणेश मंदिर में लाया जाता है। नवरात्रि, रामनवमी, धनतेरस और दीपावली जैसे खास मुहूर्त पर वाहनों की पूजा के लिए यहां लंबी कतारें लग जाती हैं। लोगों का मानना है कि नए वाहन की यहां लाकर पूजा करने से हादसा नहीं होता। इसके अलावा यहां शादी के समय पहला निमंत्रण-पत्र मंदिर में चढ़ाने की परंपरा है। मान्यता है कि निमंत्रण पर गणेश उनके घर आते हैं और शादी-विवाह के सभी कार्यों को शुभता से पूर्ण करवाते हैं।
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इतिहासकारों के अनुसार यहां स्थापित गणेश प्रतिमा जयपुर नरेश माधो सिंह प्रथम की पटरानी के पीहर मावली से 1761 ई. में लाई गई थी। मावली में यह प्रतिमा गुजरात से लाई गई थी। उस समय यह पांच सौ वर्ष पुरानी थी। जयपुर के नगर सेठ पल्लीवाल यह मूर्ति लेकर आए थे और इन्होंने ही मंदिर का निर्माण करवाया था।
 

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