स्कूल से भागने वाले बालक ने पाई ‘गुरुदेव’ की उपाधि

Edited By Lata,Updated: 19 Sep, 2019 10:07 AM

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रबीन्द्रनाथ टैगोर ने गांव के जीवन को बहुत करीब से देखा था। वह किसानों-काश्तकारों के जीवन में फैले अशिक्षा के अंधकार को मिटाना चाहते थे।

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रबीन्द्रनाथ टैगोर ने गांव के जीवन को बहुत करीब से देखा था। वह किसानों-काश्तकारों के जीवन में फैले अशिक्षा के अंधकार को मिटाना चाहते थे। उन्होंने महसूस किया कि देश के विकास के लिए पहले गरीब किसानों का विकास जरूरी है। इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने योजना बनाई कि कोलकाता से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित शांति निकेतन में जो उनकी थोड़ी-बहुत जमीन है, उस पर इन किसानों और काश्तकारों के बच्चों की शिक्षा के लिए एक स्कूल खोला जाए। रबीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल खोलने के विषय पर मशविरा करने के लिए पत्नी के पास पहुंचे। उनके इस विचार को सुनकर उनकी पत्नी हंस पड़ीं। उन्हें आश्चर्य इस बात का था कि स्कूली शिक्षा से हद दर्जे तक भागने वाला आज स्कूल की स्थापना करने की बात कैसे सोच रहा है?

उनकी पत्नी ने कहा, ‘‘आपके स्कूल खोलने की बात मेरी समझ में नहीं आई।’’ 
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टैगोर ने पत्नी की इस जिज्ञासा और हंसी को शांत करने के लिए कहा, ‘‘वह उन स्कूलों जैसा स्कूल नहीं खोलने वाले जहां बंद कोठरियों और कमरों में छड़ी के दम पर बच्चों को सबक रटाए जाते हैं। शांति निकेतन वृक्षों के नीचे खुले में व्यावहारिक शिक्षा देने वाला पहला स्कूल होगा।’’

जब शांति निकेतन की स्थापना हुई तब उनके मन में इच्छा थी कि यहां का माहौल ऐसा होना चाहिए जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई दीवार न हो। उम्र और पद को भूलकर सब एक साथ मिलकर काम कर सकें। जहां शिक्षा का मतलब किताबों में सिमटना कहीं से भी न हो। एक दिन शांति निकेतन के माध्यम से उन्होंने इस विचार को अमली जामा भी पहना दिया। यही शांति निकेतन 1921 में विश्वभारती बन गया। उत्तम दर्जे की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए रबीन्द्रनाथ टैगोर के इस लगाव को देखते हुए महात्मा गांधी ने उन्हें ‘गुरुदेव’ की उपाधि दी थी।

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