Edited By Jyoti,Updated: 13 Dec, 2020 05:57 PM
शनि देव को न्याय का देवता कहा जाता है, मगर चूंकि इनके स्वभाव धार्मिक शास्त्रों में काफी क्रूर बताया गया है। इसलिए हर कोई इनसे डरता है। इतना ही नहीं सनातन धर्म के शास्त्रों में इनसे जुड़ी कई पौराणिक कथाएं पढ़ने को मिलती है
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शनि देव को न्याय का देवता कहा जाता है, मगर चूंकि इनके स्वभाव धार्मिक शास्त्रों में काफी क्रूर बताया गया है। इसलिए हर कोई इनसे डरता है। इतना ही नहीं सनातन धर्म के शास्त्रों में इनसे जुड़ी कई पौराणिक कथाएं पढ़ने को मिलती है जिससे इनके क्रोध का अनुमान बहुत आसानी से लग जाता है। आज हम आपको शनि देव से जुड़ी एक ऐसी ही पौराणिक कथा बताने जा रहे हैं जिसके अनुसार भगवान शिव ने उनके आगे हार मान ली थीं।
धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक बार शनि देव भगवान शंकर के धाम हिमालय पहुंचें। शास्त्रों के अनुसार न्याय के देवता शनि के गुरु भगवान शंकर हैं। अपने गुरु को प्रणाम करके हे! भगवान शिव कल मैं आपकी राशि में आने वाले हूं अर्थात मेरी दृष्टि कल आप पर पड़ने वाली है।
इतना सुनते ही भगवान शंकर हतप्रभ रह गए और बोले, हे शनिदेव आप कितने समय तक अपनी वक्र दृष्टि मुझ पर रखेंगे?
इसके उत्तर में शनिदेव बोले हे नाथ! कल सवा प्रहर के लिए आप के ऊपर मेरी वक्र दृष्टि रहेगी। जिसकके बाद भगवन शंकर चिंतित हो गए और उनकी दृष्टि से बचने के लिए उपाय सोचने लगे।
बहुत सोच विचार करने के बाद शिव जी अगले दिन मृत्युलोक चले गए। इतना ही नहीं शनिदेव की दृष्टि से बचने के लिए शिव जी ने एक हाथी का रूप धारण कर लिया और सवा प्रहर तक उन्होंने यही रूप धारण किया रखा, लेकिन इसके खत्म होते वह सोचने लगे कि अब ती दिन बीत चुका है और शनिदेव की दृष्टि का उन पर कोई असर नहीं हुआ। और वह पुनः कैलाश पर्वत लौट गए।
पंरतु जैसे ही भगवान शंकर कैलाश पहुंचे उन्होंने शनिदेव की वहीं पाया। शनिदेव ने हाथ जोड़कर अपने गुरु भगवान शंकर को प्रणाम किया। भगवान शंकर प्रणाम का आशीर्वाद देते हुए बोले, आपकी दृष्टि का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ।
मगर शनि ये सुनकर बोले कि हे नाथ," मेरी दृष्टि से न तो देव बच सकते हैं और न ही दानव। यहां तक कि आप भी मेरी दृष्टि से बच नहीं पाए।"
शनिदेव की यह बात सुनकर भगवान शंकर हैरान हो गए और पूछा कैसे?
तब शनि देव ने कहा मेरी ही दृष्टि के कारण आपको सवा प्रहार के लिए देव योनी छोड़ पशु योनी जाना पड़ा। जिसका मतलब आप मेरी वक्र दृष्चि के पात्र बन गए।
भगवान शंकर अपने शिष्य शनिदेव की न्यायप्रियता को देखकर प्रसन्न हो गए और शनिदेय को ह्रदय से लगाया और आशीर्वाद दिया।