Edited By Prachi Sharma,Updated: 28 Apr, 2024 08:58 AM
योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इस प्रकार अविचलित तथा दमित मन से भयरहित
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समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥6.13॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः:।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:॥6.14॥
अनुवाद: योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इस प्रकार अविचलित तथा दमित मन से भयरहित, विषयी जीवन से पूर्णत: मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरम लक्ष्य बनाए।
तात्पर्य : जीवन का उद्देश्य कृष्ण को जानना है, जो प्रत्येक जीव के हृदय में चतुर्भुज परमात्मा रूप में स्थित हैं। योगाभ्यास का प्रयोजन विष्णु के इसी अंतर्यामी रूप की खोज करने तथा देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
अंतर्यामी विष्णुमूर्ति प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करने वाला कृष्ण का स्वांश रूप है। जो प्राणी इस विष्णुमूर्ति अनुभूति करने के अतिरिक्त किसी अन्य कपटयोग में लगा रहता है, वह नि:संदेह अपने समय का अपव्यय करता है।
कृष्ण ही जीवन के परम लक्ष्य हैं और प्रत्येक हृदय में स्थित विष्णुमूर्ति ही योगाभ्यास का लक्ष्य है। हृदय के भीतर इस विष्णुमूर्ति की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्यव्रत अनिवार्य है, अत: मनुष्य को चाहिए कि वह घर छोड़ दे और किसी एकांत स्थान में बताई गई विधि से आसीन होकर रहे। उसे मन को संयमित करने का अभ्यास करना होता है और सभी प्रकार की इंद्रियतृप्ति से, बचना होता है।