Kundli Tv- क्या आपने चखा है ये फल

Edited By Jyoti,Updated: 15 Jun, 2018 05:54 PM

samveda shaloka in hindi

भारत में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है। इसलिए कहा जाने लगा है कि सत्य,ईमानदारी, तथा कर्तव्य निष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता।

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भारत में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है। इसलिए कहा जाने लगा है कि सत्य,ईमानदारी, तथा कर्तव्य निष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता। दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य की विषय वस्तु बन गया है इसलिए लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिए यह ज़रूरी है कि वह लोगों में अपनी छवि बनाए रखें इसलिए वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं।

वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनाएं बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात के समान ही रहता है। इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिए भारी व्यय होता है जिसके लिए बजट में राशि जुटाने के लिए तमाम तरह के कर लगाए गए हैं। इन करों से बचने के लिए धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ाते जाते हैं। उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है। इसलिए धर्म और दान उनके लिए महत्वहीन हो गया है।
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सामवेद में वर्णित श्लोक-
ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।


‘‘सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है।’’


श्लोक-
‘‘वार्च वर्थय।

‘‘सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए।’’

वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।

‘‘विद्वान तेज हो तो पूज्य होता है।’’

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कहने का अभिप्राय है कि हमारे देश में सत्य की बजाए भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है। राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है। परंतु लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं पर कहा जाता है कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से मिथ्या रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं जो कि अप्रकट है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है कि सत्य बोलने विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं वह असत्य मार्ग पर चलने के कारण ही है।
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सत्य एक ऐसा शस्त्र है जिससे सुकर्म किए जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उन्हें यह समझाना मुश्किल है पर तत्व ज्ञानी जाते हैं कि अस्थायी सम्मान से कुछ नहीं होता इसलिए वह सत्य के प्रचार में लगे रहते हैं और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट लेता है।
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