Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 Jun, 2017 02:28 PM
जिस प्रकार अग्नि से चिंगारियां निकलती हैं, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण से जीव-समूह (प्राणी) प्रकटित होते हैं। जीव (प्राणी) तो वास्तव से भगवान का दास है अर्थात् उसका स्वरूप कृष्ण-दास है। वह श्रीकृष्ण की तटस्था
जिस प्रकार अग्नि से चिंगारियां निकलती हैं, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण से जीव-समूह (प्राणी) प्रकटित होते हैं। जीव (प्राणी) तो वास्तव से भगवान का दास है अर्थात् उसका स्वरूप कृष्ण-दास है। वह श्रीकृष्ण की तटस्था शक्ति है। जो शक्ति चित और अचित दोनों ही जगतों के लिए उपयोगी है उसी का नाम तटस्था है। वह श्रीकृष्ण का भेदाभेद प्रकाश है, अर्थात् श्रीकृष्ण से उसका एक ही साथ भेद भी है और अभेद भी। केवल भेद या केवल अभेद ही नहीं है।
वृहदारण्यक में कहते हैं-
तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भक्त इदंच परलोक स्थानंच
सन्ध्यं तृतीयं स्वप्नस्थानम्। तस्मिन् सन्ध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यतीदंच परलोकस्थानंच। (4/3/9)
अर्थात्: उस जीव-पुरुष के दो स्थान हैं अर्थात् वह जड़ जगत और चित जगत् के बीच अपने सन्ध्य तृतीय स्वप्नस्थान पर स्थित है। वह दोनों जगतों के मिलन स्थान (तट पर) स्थित होकर जड़-विश्व और चित्-विच्व दोनों को ही देखता है। जैसे एक बड़ी मछली नदी में तैरती हुई कभी नदी के एक तट पर तो कभी दूसरे तट पर विचरण करती है, उसी प्रकार जीव पुरुष कारण-समुद्र के दो तटों अर्थात जड़-जगत और चिद्-जगत में संचरण करते हैंं।
इसे इस प्रकार भी कह सक्ते हैं कि जीव चिद् और जड़ जगत के बीच की रेखा पर खड़े होकर दोनों जगतों की ओर देखते हैं। उस समय उनके अंदर भोग की कामना उत्पन्न होती है, तो तत्क्षण ही वे चित्-सूर्य श्रीकृष्ण से विमुख हो जाते हैं। साथ-साथ ही माया उसे भोग करने हेतु स्थूल-सूक्ष्म शरीर प्रदान कर संसार के जीवन-मरण के चक्कर में डाल देती है। जिन जीवों के अंदर भोग की कामना उत्पन्न नहीं होती वे माया-जगत में नहीं फंसते।
अपनी स्वतंत्रता का गलत उपयोग करने के कारण प्राणी की ऐसी हालत होती है। उसकी इस दुर्दशा के लिए श्रीकृष्ण पर किसी प्रकार से दोषारोपण नहीं किया जा सकता क्योंकि परम कौतुकी श्रीकृष्ण ने जीवों को स्वतंत्रता नामक दिव्य रत्न दिया है और वे स्वयं उसकी स्वतंत्रता में कभी भी हस्त्क्षेप नहीं करते।
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
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