Srimad Bhagavad Gita: ‘श्रीमद्भगवद् गीता के अध्यायों का नामकरण रहस्य तथा सार’ - 6

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 19 Sep, 2021 04:47 PM

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इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी ने योगी तथा संन्यासी के विषय में अपना निर्णय सुनाते हुए कहा है, ‘‘हे अर्जुन! जो पुरुष कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी है

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छठा अध्याय : ‘आत्म संयम योग’

Srimad Bhagavad Gita: इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी ने योगी तथा संन्यासी के विषय में अपना निर्णय सुनाते हुए कहा है, ‘‘हे अर्जुन! जो पुरुष कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी है और वही योगी है। केवल अग्नि को त्यागने वाला योगी तथा संन्यासी नहीं है और न ही कर्मों को त्यागने वाला योगी और संन्यासी है।’’

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यहां भगवान श्री कृष्ण जी ने अत्यंत सरल शब्दों में योग की परिभाषा अपने भक्तों को बताकर उन पर बड़ा ही उपकार किया है कि निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करने वाला ही वास्तविक योगी तथा संन्यासी है। योगारुढ़ व्यक्ति को सर्व संकल्पों का त्याग कर न तो इंद्रियों के भोगों में आसक्त होना चाहिए तथा न ही कर्मों में और अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुंचाते हुए उसे अपना संसार समुद्र से उद्धार करना चाहिए। वह योगी क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न करे।  

यह स्थिर न रहने वाला मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उससे रोक कर बारम्बार उसे परमात्मा में लगाएं। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में मुझे आत्मरूप वासुदेव को देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता और न ही मैं उसके लिए अदृश्य होता हूं।

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अर्जुन ने अब भगवान श्री कृष्ण से पूछा, ‘‘हे प्रभु! जिस मनुष्य का मन अंतकाल में योग से विचलित हो गया है, कहीं वह सांसारिक भोगों से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता?’’

भगवान बोले, ‘‘हे अर्जुन! कोई भी शुभ कर्म करने वाला कभी नष्ट नहीं होता। वह योग भ्रष्ट व्यक्ति स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को भोग कर वहां बहुत वर्षों तक वास करके, तत्पश्चात शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है। वहां वह पहले शरीर में साधन किए समत्व बुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। उन संस्कारों के प्रभाव से वह फिर भगवत प्राप्ति के लिए भगवान की ओर आकॢषत होकर यत्न करता है।’’

‘‘इस प्रकार अनेक जन्मों से अंत:करण की शुद्धि रूप सिद्धि को प्राप्त हुआ तथा प्रयत्न करता हुआ वह मनुष्य इस साधन के प्रभाव से परम गति अर्थात मुझको प्राप्त कर लेता है इसलिए वह योगी सकाम कर्म करने वालों तथा शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है परंतु जो श्रद्धावान योगी अंतरात्मा से मेरे को निरंतर भजता है, वह मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।’’

इस अध्याय में भगवान ने योग की प्राप्ति के लिए आत्म संयम को अधिमान दिया है तथा इसके माध्यम से योग की विधि बतलाई है इसलिए इस अध्याय का नामकरण ‘आत्म संयम योग’ रखा गया है।  

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